Saturday, May 28, 2011

क्या सरकारें किसानों के हितों के बारे में उदासीन हैं और नेता नौटंकी कर रहे हैं?

भारत की राजधानी दिल्ली से सटे नो‌एडा के भट्टा परसौल गांव में हाल में किसानों और पुलिस के बीच टकराव हु‌आ है.

गत 17 जनवरी से उस इलाक़े के क‌ई किसान भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे और कुछ दिन पहले किसानों और सुरक्षा बलों के बीच हिंसक संघर्ष हु‌आ.

उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार तीन अधिकारियों को किसानों द्वारा बंधक बना‌ए जाने के बाद, जब ज़िलाधीश और पुलिस बल घटनास्थल पर पहुँचे तो उन पर गोली चला‌ई ग‌ई और वे घायल हो ग‌ए. पुलिस की कार्रवा‌ई में तीन लोग मारे ग‌ए, क‌ई किसान घायल हु‌ए और गांवों में भय का वातावरण है.

इसके बाद क‌ई राजनीतिक नेता‌ओं ने वहाँ जाने का प्रयास किया. भाजपा के क‌ई नेता गिरफ़्तार हु‌ए, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को हिरासत में लेने के बाद रिहा कर दिया गया. कांग्रेसियों ने इसकी निंदा की लेकिन अन्य दलों ने इसे नौटंकी बताया.

मायावती सरकार का कहना है कि भट्टा परसौल के किसानों को‌ई असंतोष नहीं है और राजनीतिक दल शांति भंग करने से बाज़ आ‌एँ. मायावती सरकार ने कहा कि न‌ए भूमि अधिग्रहण क़ानून को बनाने से केंद्र सरकार किसने रोका है? इससे पहले भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर नंदीग्रम, सिंगूर और भारत में क‌ई अन्य जगहों पर आंदोलन हु‌ए हैं.

क्या केंद्र के साथ-साथ राज्यों की सरकारें देश के लि‌ए अनाज पैदा करने वाले किसानों के हितों के प्रति उदासीन हैं? क्या भूमि अधिग्रहण न्यायसंगत ढंग से होता है और ये समाज की प्रगति के लि‌ए आवश्यक है? क्या राजनीतिक नेता इस मुद्दे पर गंभीर हैं या फिर उन्हीं के शब्दों में ’नौटंकी’ कर रहे हैं?

Thursday, May 5, 2011

अपराध की बांहों में राजधानी

जिस दिन पूरा देश महिला दिवस मना रहा था उस दिन देश की राजधानी में दिल्ली में दो हत्यायें हुई । एक दिल्ली विश्‍वविद्यालय की छात्रा राधिका तंवर की और दूसरी नोएडा के चर्चित आरूषि हत्याकांड के राजेश तलवार की वकील रेबेका जॉन की मां एम मेमन की । बात सिर्फ दो हत्या की नहीं है, बल्कि दिल्ली में बढ़ रहे अपराधिक मामले की है । आज आलम ये है कि दिल्ली में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब कोई हत्या, बलात्कार, छेड़छाड़ या हिंसा की खबरें मीडिया में नहीं आती और इस पूरे मामले में महिलाओं पर इसका असर सबसे ज्यादा पड़ रहा है ।

दिल्ली में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार यहां लगभग 67 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी रूप में दुर्व्यवहार का शिकार होती है, जबकि 2010 में हर तीन में से दो महिलाएं यौन हिंसा की शिकार हुई हैं, जबकि हर 17 घंटे में एक छेड़खानी होती है । बलात्कार के मामले में अभी तक पुलिस ने 340 पड़ोसी, 94 दोस्त, 62 रिश्तेदार, और 10 अपरिचित लोगों को हिरासत में लिया है । हैरानीजनक बात तो यह है, कि जब ऐसी कोई घटना होती है तभी पुलिस सक्रिय होती है और इसी वजह से दिल्ली में महिलाएं अपने आपको सुरक्षित नहीं मानती और दस में से सात महिलाओं का पुलिस पर से विश्‍वास उठ गया है । राजधानी की 71 प्रतिशत महिलाएं पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाने में अपने आप को असुरक्षित महसूस करती है और इसका सबसे ज्यादा शिकार स्कूल या कॉलेज जाने वाली लड़कियां और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं होती हैं ।

ऐसे में प्रश्न ये उठता है कि दिल्ली में अपराधिक विकृतियां क्यों बढ़ रही हैं? जिसे न तो प्रशासन का डर है और ना ही सामाजिक शक्‍तियों का । सबसे बड़ी बात तो यह है कि भ्रष्टाचार और अपराध ने हमारी व्यवस्था में अंदर तक पैठ बना ली है और वे हमारे समाज के अभिन्‍न अंग बन गए हैं और यही हाल है देश की राजधानी का, यहां ऐसी कई बस्तियां हैं जहां मेहनत मजदूरी करने वाले गरीब लोग रहते हैं, और इन्हीं इलाकों में आपराधिक तत्व पोषण प्राप्त कर रहे हैं । तथा यहीं से आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं, चौंकाने वाली बात तो यह है कि पुलिस तथा प्रशासन इन सबसे वाकिफ है लेकिन अब तक कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है ।

अभी हाल ही में दिल्ली सरकार ने एक आंकड़े जारी किए हैं जिसे देखकर यही लगता है कि दिल्ली में अपराधों की दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है जबकि दिल्ली पुलिस के आधुनिकीकरण और लाख दावों के बाद भी कि यहां अपराध कम हुए हैं एक खोखला सच ही सामने आया है क्योंकि इस बात की पुष्टि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित खुद विधानसभा में कर चुकी हैं कि दिल्ली में अपराध पिछले वर्षों में काफी बढ़े हैं । हालांकि दिल्ली में बढ़ रहे अपराध को लेकर मुख्यमंत्री के बयान भी राजनीति से प्रेरित ही लगते हैं क्योंकि, राधिका तंवर हत्याकांड में जब मीडिया ने उनको कठघरे में खड़ा किया तो उन्होंने अपना पल्ला झाड़ते हुए कह दिया कि दिल्ली पुलिस पर मेरा कोई जोर नहीं क्योंकि यहां की पुलिस केन्द्र सरकार के अधीन काम करती है इसलिए अपराधों के प्रति मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती । अब चाहे जो भी हो, इसके लिए चाहे केन्द्र सरकार दोषी हो या राज्य सरकार सबकी निगाहें दिल्ली में बढ़ रहे क्राइम ग्राफ की ओर है, और सरकार में बैठे लोग हो या पुलिस प्रशासन सबकी जिम्मेदारी बनती है कि अपराध की बाहों में जकड़ी हुई दिल्ली को बाहर निकालें ।

क्राइम जोन है दिल्ली का धौलाकुआं

दक्षिण दिल्ली का धौलाकुआं इलाका दिल्ली में बढ़ते हुए अपराधों का जोन बन गया है । एक अध्ययन के अनुसार इस क्षेत्र में पिछले एक महीने में एक बलात्कार, ग्यारह डकैती, एक हत्या, और एक छेड़खानी हुई है, जबकि पिछले वर्ष पांच महीनों का ब्यौरा देखा जाए तो अभी तक तीन बलात्कार और तीन छेड़खानी के मामले दर्ज हुए हैं ।

पिछले दो महीनों में पुलिस द्वारा दर्ज अपराधिक मामले

हत्या ---- 80
हत्या की कोशिश-----51
बलात्कार----- 14
2010 में हुए आपराधिक मामले

आपराधिक मामले--- 53,244
हत्या -----467
बलात्कार-----581
डकैती ----- 1,764
अपहरण ------1,582
वाहन चोरी---- 6867
घरों में चोरी --- 905

Thursday, September 23, 2010

टीआरपी के लिए सम्प्रदायों में द्वेष परोसा आईबीएन सेवन ने

कहते हैं मीडिया समाज में जागरूकता, ज्ञान, और संस्कृति आदि की प्रचारक होती है, लेकिन इसका उपयोग अगर सकारात्मक रूप से स्वार्थ से परे हटकर करा जाये तो । मीडिया में तो वह क्षमता है कि राक्षस को देवता, और देवता को राक्षस, पत्थर को देवता, रातों-रात किसी को महान या किसी को रातों-रात डिफेम कर दे । लेकिन क्षेत्र कोई भी हो जब कोई भी काम स्वार्थ से लिप्त गलत भावना से किया जाता है, मनुष्य बहुत दिन तक अपने अस्तित्व को ही नहीं साथ ही उस क्षेत्र को भी बदनाम करता है, जिसमें वह काम कर रहा है । १७ सितंबर २०१० को आईबीएन सेवन न्यूज चैनल में एक स्टिंग ऑपरेशन दिखाया गया कि किस तरह से बहुसंख्यक समुदाय के लोग अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को किराये में अपना मकान देने में हिचकिचाते हैं, या मना कर देते हैं ।
आखिर इस तरह का न्यूज दिखाकर के आम मानस में क्या साबित करना चाहते हैं । बस इन्हें तो टीआरपी मिल जायेगी, लेकिन आम जनता पर इसका क्या असर पड़ेगा? क्या इनका यह दायित्व नहीं बनता कि यह हमारा कार्य जिम्मेदाराना ढंग से करें । हमें समाज के दिलों को जोड़ना है ना कि तोड़ना । ऐसा नहीं है कि इस स्टिंग ऑपरेशन में दिखाया गया समाज का चेहरा असत्य था । लेकिन इसका एक पहलू था, किसी भी चीज में या किसी भी जगह हमें अच्छाई व बुराई दोनों मिलती है, लेकिन यहां पर तो बाकायदा नाटकीय ढंग से बुराई को समाज में से निचोड़ने की कोशिश की है । और उसे चैनल पर प्रसारित कर हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी सभ्यता को दूषित करने की कोशिश की गई है ।
कभी यह लोग इस तरह की खोज क्यों नहीं करते कि यहां समाज में दोनों समुदायों के बीच प्यार व भाईचारे की मिसाल मिलती है । और ऐसा दिखाकर ये देश व समाज के प्रति एक कर्तव्य का भी पालन कर सकते हैं । वो भी ऐसी स्थिति में जब देश में इन दोनों सम्प्रदायों के बीच में कहीं राजनीति, कहीं बाहरी देशों से चलाये गये आतंकवाद आदि हमेशा खटास पैदा करते हैं । जम्मू-कश्मीर की हालत किसी से छुपी हुयी नहीं है । अयोध्या का शान्त व पवित्र स्थान सिर्फ राजनीति के ही कारण दूषित पड़ा हुआ है । ऐसी स्थिति में जब अयोध्या का फैसला आने वाला है , देश आतंक के खतरों को झेल ही रहा है तो ऐसे में आईबीएन सेवन ने इस तरह की खबर देकर आग में घी डालने का काम करा है ।
भारत के गंगा-जमुनी सभ्यता में हिंदू-मुस्लिम करीब १ हजार साल से भी ज्यादा समय से साथ रह रहे हैं, और अगर उनमें एकता व भाईचारा नहीं होता तो इतना लम्बा समय एकसाथ बिता पाना असंभव सी बात है । यह बात अलग है, कि जहां परिवार में एक साथ बैठते हैं तो छोटी-बड़ी शिकायतें होती हैं । जिसका बाहरी कुछ स्वार्थी लोग फायदा उठाकर बरगलाते हैं, और अपने स्वार्थ हेतु माहौल को गंदा करते हैं । जबकि हमारे देश में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की एकता की मिसालें अनगिनत हैं और आये दिन ये अनगिनत मिसालें देखने को मिलती हैं ।
अभी हाल ही में १४ सितंबर को बरनाहल थाना क्षेत्र कटरा मोहल्ले कि एक महिला की बकरी ने शीतला माँ के मन्दिर में घुसकर उनकी मूर्ति क्ष्रतिग्रस्त कर दी, जिसके बाद मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों ने अपने हिंदू भाईयों के लिए एक अनूठी पहल करते हुये, चंदा एकत्रित कर नयी मूर्ति की स्थापना कराई तथा एक जिम्मेदाराना भाईचारे का परिचय दिया ।
इसी तरह से अजमेर में सूफी संत ‘गरीब नवाज’ मोइनुद्दीन चिश्ती का सालाना उर्स हिन्दू-मुस्लिम की जीती-जागती मिसाल पेश करता है, यहां पर पूरी श्रद्धा के साथ देश-विदेश, से कई मजहबों के लोग आते हैं, और ख़्वाज़ा से अपनी दुआ कबूल कराते हैं ।
जम्मू-कश्मीर ने लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम भाई-चारे की अनूठी मिसाल कायम की कि यहां के मुट्‌ठी इलाके के हिंदुओं ने मिलकर कश्मीर के एक मुस्लिम युवक को दफनाने की सारी रस्में अदा कीं आर्थिक तंगी से जूझ रहे आसियां के परिवार का साथ देने के लिए यहां के हिन्दू परिवार के लोग आगे आये । तथा उनकी मदद की ।
इसी तरह उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के नौबतपुर गांव का संकटमोचन मंदिर जो १५० साल पुराना है, जो हिंदू-मुस्लिम एकता का और भाईचारे का मिसाल बना हुआ है । इस मंदिर में रमज़ान के महीने में मुसलमान रोजा खोलने से पहले की नमाज़ मंदिर में अदा करते हैं और रोज़ा हिंदुओं द्वारा बताए गए विभिन्‍न प्रकार के व्यंजनों से खोलते हैं ।

Wednesday, September 22, 2010

हिन्दी का अस्तित्व


हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी 14 तारीख को हिंदी दिवस कुछ हिंदी प्रेमियों के द्वारा याद तो रखा जायेगा । लेकिन दिन प्रतिदिन अंग्रेजी का आकर्षण हिंदी को कहीं ना कहीं से दबाता या तोड़ता-मोड़ता जा रहा है । इसके पीछे बहुत बड़ा कारण यह है कि हिंदी भाषी सदियों से हीनता के शिकार होते चले जा रहे हैं, आज हमारे देश में पुरानी बहुत सारी विद्यायें विलुप्त हो चुकी हैं अगर उसका कुछ अंश मिलता है तो सीधे-साधे शब्दों में समझ में नहीं आता । क्योंकि किसी भी संस्कृति, विद्या एक युग से दूसरे युग तक भाषा पहुंचाने या संवहन का कार्य करती है ।

और हमारे देश में कई सौ साल गुलाम रहने के बाद अलग-अलग भाषाओं और संस्कृति से प्रभावित होने के कारण खुद की भाषा से, खुद की पहचान से कमजोर होता चला गया । और हिंदी भाषियों को हीनता का शिकार बनाता चला गया । जिसके कारण हिंदी दिन-प्रतिदिन एक युग से नये युग तक अपना प्रभाव कमजोर करती जा रही है । हम हिंदी भाषियों के दिमाग में हीनता इस कदर बढ़ गयी है कि हम अपनी चीजों की कमजोरी या अपरिपक्व समझते हैं और हम हीनता के शिकार हिंदी भाषी हिंदी को और हीन करते जा रहे हैं । नये युग में हिंदी का सम्मोहन तभी होगा जब हम हिंदी के साथ अपने को गर्वित महसूस कर सकते हैं । जैसे हिंदी दिन-प्रतिदिन हीन हो रही है, वैसे-वैसे अपनी संस्कृति, सभ्यता या हम भी हीन होते जा रहे हैं ।

हिंदी सिर्फ हमारी भाषा ही नहीं अपितु हमारी पहचान है, और जिसे खोकर हम अपनी पहचान खो रहे हैं । पिछले वर्ष समय दर्पण के सिंतबर अंक में हमने लिखा था- कि जहां हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, जो पितातुल्य हमें हमारी संस्कृति को संजोता, संवारता और विश्‍व में हमारी पहचान कराता है । अलबत्ता अन्य क्षेत्र की भाषाएं अलग-अलग क्षेत्र के भारतीय लोगों के लिए मात्र भाषा हैं, लेकिन विश्‍व में पहचान या अस्तित्व का निर्माण राष्ट्र भाषा से ही होता है । हम हिंदी को ना अपनाकर अपनी हीनता को प्रदर्शित करते हैं, यह ठीक वैसे ही है, जैसे कोई नये जमाने का लड़का किसी बड़े लोगों के समाज में जाता है, और अपनी गरीबी छुपाने के लिए किसी दूसरे की कपड़ों को पहनकर अपने को दूसरे समाज का प्रदर्शित करता है । लेकिन उस समाज में गरीब, लाचार फटे कपड़े पहने पिता वेटर के रूप में दिखाई देता है, तो बेटा उस स्थिति में अपने दोस्त, समाज या नये समाज में अपने पिता को पहचानने से ही इंकार कर देता है । आज हम हिंदी के साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार कर रहे हैं । पर इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि हम अपनी पहचान छुपाकर अंग्रेजीयत का मुखौटा पहनकर कब तक इस झूठे अस्तित्व को जिंदा रख पायेंगे । आईये हम सब मिलकर इस हिंदी दिवस में हिंदी के विकास, फैलाव और उसे गर्व से अपनाने की प्रतिज्ञा लेते हैं ।

Wednesday, August 25, 2010

स्वाधीनता का अभिप्राय है, “खुद के कर्तव्यों की अधीनता”

15 अगस्त 2010 को हमलोग आजाद भारत का 63वां वर्ष पूर्ण कर 64 वें वर्ष में प्रवेश कर जाएंगे । हर साल यह पावन दिन भारतवासियों के लिए स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाता है । स्वाधीनता का अभिप्राय है- स्व-अधीनता अर्थात खुद की अधीनता । खुद की अधीनता का भी दो तरह का मतलब निकलता है- एक वह जो मन के अधीन होकर कार्य करते हैं किन्तु इसे स्वाधीनता के अर्थ में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि मन तो चंचल है और मन में कोई अधीनता नहीं होती । लेकिन जब लोग अपने कर्त्तव्यों व अहसासों का एहसास करते हुये स्वा अधीनता महसूस करते हैं वही सही मायने में स्वाधीनता है ।

परन्तु आजादी का यह दिन कहीं ना कहीं मूलभूत रूप से आज के युवाओं में अपना असर या अपना अभिप्राय तनिक भी नहीं छोड़ पा रहा है । सिर्फ औपचारिकता वश आजादी का यह दिन मौज-मस्ती व छुट्‌टी का दिन बनकर रह गया है इतना ही नहीं इन्हें तो इस बात का अभी एहसास नहीं है कि यह आजादी कितने बलिदानों के बाद मिली है । युवाओं को क्या कहें अधिकांशतः देशवासियों के मन में भी आजाद भारत से अभिप्राय यही है कि वे आजाद और उन्मुक्‍त हैं, और अपनी मनमानी कर सकते हैं, परन्तु आजादी दिलाने वाले सैलानियों ने यह सोचकर आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी । आज के देशवासियों को यह जरूर समझना चाहिए कि हम स्वाधीन भारतीय खुद के अधीन हैं, जहां से खुद की जिम्मेदारियों, कर्त्तव्यों, देश के प्रति हमारी जिम्मेदारियों के निर्वहन की अधीनता की शुरू होती है । यह अधीनता १५ अगस्त सन्‌ १९४७ से ही शुरू हो गयी थी, लेकिन पराधीनता सिर्फ दूसरों के आदर्शों का पालन करना ही होता है, लेकिन स्वाधीनता खुद के दायित्वों का बोझ रखते हुये उसे मूलरूप देने के लिए राष्ट्रों का निर्माण करना तथा अपने सभी दायित्वों के प्रति सजग रहना आदि है

पर आजादी के बाद आजादी की खुशी में स्वाधीनता के मूलभूत बातों को हम देशवासी अपने जहन में नहीं बिठा सकते । और यही कारण है कि हम उन्मुक्‍त होकर अपनी मनोभूति रूपी इच्छाओं की पूर्ति हेतु आजादी की पूर्ति करते हैं । दिन पर दिन हम देशवासी अपने कर्त्तव्यों और देश के प्रति अपने दायित्वों, अपनी संस्कृति व निष्ठा से दूर तो होते ही जा रहे है, साथ ही साथ अपनी संस्कृति की वाहक मातृभाषा हिन्दी से भी दूर होते जा रहे हैं । जब तक हम स्वाधीनता का मूलभूत अर्थ अपने जहन में नहीं बिठा लेते तब तक दुनिया में हम अपनी सभ्यता, संस्कृति का परचम नहीं लहरा सकते । और ना ही हम अपनी पहचान बना सकते हैं, और ऐसा अगर हम नहीं कर सकते तो उन सभी स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान जिनके प्राणों की आहुति पर हमें स्वतंत्रता मिली है, उसे हम निरर्थक साबित कर देंगे । और जहां कहीं से भी अगर उनकी अंतरात्मा इस भारत को देख रही है तो भारत की इन स्थितियों को देखकर दुःखी ही होगी । अंत में अपनी इन बातों के साथ ज्योति प्रकाश की मार्मिक कविता प्रस्तुत करना चाहूंगा-

स्वाधीनता का अर्थ है, स्व की अधीनता
परमार्थ प्राप्त कराना न कि दीनता
शहीद अब तो हो ग‌ए गुमनाम हम वतन
अब जश्न की चिंता है श्रद्धांजलि की कम
जिस अंग्रेजियत के लिये बलिदान कर दिया
उसी ने दिलो-दिमाग पर अधिकार कर लिया
संस्कृति अब हो गयी निर्वस्त्र साथियों
हिंदी है अब दम तोड़ती घुटन कातिलों
1947 में जब स्वाधीनता मिली
कुछ वक्‍त ही ये स्वाधीनता रही
चंद कदम बाद आजादी बन गया
अब 15 aug. जस्न-ए-बर्बादी बन गया

मंद पवन को आँधी ना कहो
स्वाधीनता को जस्ने आजादी ना कहो
भाव को समझो वरना अनर्थ ही होगा
स्वाधीनता दिवस मनाना व्यर्थ ही होगा
बेशक तुम अंग्रेजी, चाईनीज, फारसी पढ़ो,
ज्ञान को बढाओ ना कि उसको सीमित करो
पर अपनी सभ्यता, संस्कृति का गला मत घोंटो
प्राणहीन हो रही हिन्दी प्रिये! इसका कत्ल रोको
लो प्रण आज स्वयम्‌ को अपने अधीन कर लो
मन, कर्म, वचन पर जीत कर लो
अधिकार मत छीनो किसी का गला मत घोंटो

जीने दो सबको मनुष्य ! प्राण वायु न रोको
रोग, गरीबी, व भ्रष्टाचार को रोको
बच्चों, औरतों पर हो रहे अत्याचार को रोको
विवशता मनुष्यता विकास, एकता की बात को सोचो
मजदूर, किसान मर रहे हैं इनके आँसू तो पोंछो
जश्न-ए-आजादी मना रहे हो पहलवान
ये जन्मदिन नहीं तुम्हारा, है देश का त्यौहार
तुम्हें क्या कमी है तुम तो ता उम्र हो आज़ाद
पर इस दिन तो कर दो किसी के लिये दो अश्रु का बलिदान

- ज्योति प्रकाश सिंह

Saturday, July 24, 2010

गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन कांग्रेसी राजनीति की दोहरी चाल


आजमगढ़ में दिग्विजय सिंह की यात्रा और उसके बाद गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन कांग्रेसी राजनीति की दोहरी चाल को दर्शाती है । पहले तो कांग्रेस डेढ़ साल बाद सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का नया मुखौटा लगाकर आजमगढ़ गयी और उसके बाद मुसलमानों से यह प्रमाण पत्र ली कि वह आजमगढ़ के पीड़ित उन परिवारों से मिली है। इस प्रमाण को लेकर अब उसे वोट की राजनीति में तब्दील करने के प्रयास में है। गोरखपुर समेत तरा‌ई वाले पूरे क्षेत्र में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ पर क‌ई सांप्रदायिक दंगों और हमलों के आरोप हैं। उत्तर प्रदेश की अपराधियों और माफिया‌ओं की सूची में भी योगी पहले स्थान पर हैं। ऐसे में कांग्रेस बिना आजमगढ़ ग‌ए अगर गोरखपुर सम्मेलन करती तो उस पर सवाल जरुर उठता कि कांग्रेस ने ही आतंकवाद के नाम पर बाटला हा‌उस में मासूमों को मरवाया और दर्जनों पर आतंकी होने का आरोप लगा अब किस मुंह से गोरखपुर में सम्मेलन कर रही है। दूसरा कांग्रेस यह जानती थी कि वह अगर आजमगढ़ जा‌एगी तो भाजपा जरुर उसका विरोध करेगी और भावनात्मक आधार पर वो मुसलमानों में यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि कांग्रेस मुस्लिम हितैषी है और जिसका प्रमाण होगा भाजपा विरोध जिसको कांग्रेस को कहने की को‌ई जरुरत नहीं होगी और हु‌आ भी ऐसा।

इसीलि‌ए कांग्रेस आगे आजमगढ़ फिर गोरखपुर गयी। इसका फायदा कांग्रेस को जरुर मिलेगा क्योंकि योगी के आतंक से पूरा क्षेत्र आतंकित है चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान। अब यहां के लोगों में एक न‌ए ढर्रे की राजनैतिक आकांक्षा है और इसे कांग्रेसी बखूबी समझ रहे हैं। इस राजनैतिक आकांक्षा का अंदाजा डा0 अयूब की पीस पार्टी और ओलमा का‌उंसिल से आसानी से लगाया जा सकता है। कुछ समय पहले तक कांग्रेस के एजेंडे में था कि ऐसे दलों को समाहित कर लिया जाय। इसके लि‌ए उसने राजभर जाति के नेता के तौर पर् उभरे ओम प्रकाश राजभर से भी बीते कुछ वर्षों में साठ-गांठ करने की कोशिश की पर मामला बन नहीं पाया। पिछली 27 जनवरी को पीस पार्टी के डा0 अयूब, भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर और रामविलास पासवान ने जो खलीबाद में ‘गुलामी तोड़ो समाज जोड़ो’ के नारे के साथ नया गठजोड़ बनाया उससे कांग्रेस सकते में आ गयी। क्योंकि तरा‌ई के क्षेत्र में कांग्रेस को मिली सफलता का एक बड़ा कारण था पीस पार्टी का चुनाव में उतरना। केंद्र में भाजपा का को‌ई खतरा नहीं था। ऐसे में मुसलमान नया प्रयोग करना चाह रहा था। लेकिन प्रयोग में फायदा कांग्रेस को हु‌आ। पीस पार्टी ने सामाजिक न्याय के झंडा बरदारों वो चाहे सपा हो या फिर बसपा का ही वोट पाया। ऐसे में कांग्रेस को मजबूती मिली उसके उदार हिंदू और उदार मुस्लिम वोटरों या कहें कि ऐसा तबका जो योगी से त्रस्त था और दूसरे विकल्प के रुप में पीस पार्टी को नहीं देख रहा था उसने कांग्रेस की झोली में अपना मत दिया और यह रुझान अब भी कायम है। लेकिन ओलमा का‌उंसिल भी अपने को इस क्षेत्र में स्थापित करने की कोशिश में है। कांग्रेसी लगातार यह प्रचारित करने की कोशिश में लगे हैं कि बाटला हा‌उस के नाम पर ओलमा का‌उंसिल सियासत कर रही है, तो वहीं ओलमा का‌उंसिल अपने को एक राजनैतिक दल के रुप में स्थापित करने की कोशिश में लगी है।

आजमगढ़ियों में इस यात्रा ने एक मजबूत गांठ बना दी है कि अब को‌ई जांच नहीं होने वाली है। कांग्रेस ने यह सब एका‌एक नहीं किया। इसकी तैयारी उसने लोकसभा चुनावों के पहले ही शुरु कर दी थी पर गोटी नहीं फिट हुयी। बाटला हा‌उस के बाद आजमगढ़ में बने ओलमा का‌उंसिल से उसने बात की पर ओलमा का‌उंसिल ने साफ कहा कि दिग्विजय सिंह जो बाटला हा‌उस को बंद कमरे में फर्जी मानते हैं इसे खुले तौर पर आगे कहें। पर इतनी हिम्मत न दिग्विजय में हुयी न उनके युवराज या और न उनके किसी आका में। पर चाहे जो हो इस यात्रा का आजमगढ़ के कांग्रेसी वोटों के समीकरण पर को‌ई प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है क्योंकि वहां न उनके पास नेता है न ऐसे समीकरण जिनके बूते वे कुछ कर पा‌एं। जो कांग्रेसियों ने आतंकवाद के नाम पर किया उसका फायदा भाजपा-योगी जैसे लोगों ने सांप्रदायिकता भड़काने में किया। दूसरा मुसलमानों की हितैषी सपा का चेहरा भी बेनकाब हु‌आ। ऐसा नहीं है कि सपा इन घटना‌ओं के बाद सवालों को नहीं उठायी थी । सपा ने अबू बसर और बाटला हा‌उस के बाद दो विशाल जनसभा‌एं कीं। पर सपा का हिंदू वोटर या कहें कि यादव इसे आसानी से नहीं पचा पाया और जिसमें आजमगढ़ के रमाकांत यादव का व्यक्तिगत प्रभाव भी आड़े में आया। ऐसे में टूटते एमवा‌ई समीकरण में मुसलमानों की ओलमा का‌उंसिल उस समय स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी। बाद में उसके राजनीतिक होने पर थोड़ा उसका पावर बैलेंस कम हु‌आ लेकिन आजमगढ़ का मुस्लिम युवा यह जानता है कि उस पर अगर को‌ई ज्यादती होगी तो ओलमा का‌उंसिल ही सामने आ‌एगी। और यह कोरी लफ्फाजी नहीं है इसे ओलमा का‌उंसिल को मिले वाटों में आसानी से देखा जा सकता है। अब एक न‌ए समीकरण की जुगत में अमर सिंह लगे हैं लेकिन अभी उनका मूल्यांकन करना जल्दीबाजी होगा।

दिग्विजय सिंह ने अमरेश मिश्रा के माध्यम से आजमगढ़ में घुसने का प्रयत्न किया। और अमरेश को सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का गठन कर प्रभारी बनाया। कांग्रेसी न्याय के समीकरण के चलते उसी दिन खबरों में रहा कि शिवानी भटनागर हत्या कांड के आरोपी आरके शर्मा को जमानत मिली जो अमरेश के ससुर हैं। अमरेश वामपंथ से होते हु‌ए 1857 पर किताब लिख, सांप्रदायिक दंगों और बाबरी विध्वंस के आरोपी लाल कृष्ण आडवाणी से उसका विमोचन करवाया। और इसके बाद यूडी‌एफ होते हु‌ए ओलमा का‌उंसिल का सफर तय किया। अमरेश ने बाटला हा‌उस पर सवाल उठा‌ए थे ऐसे में कांग्रेस के लि‌ए अमरेश काफी महत्वपूर्ण थे जो आजमगढ़ में उन्हें ले जा सकते थे। पर कांग्रेस यह भी अच्छी तरह भाप रही है कि अमरेश उसे वोटों की गणित में पार नहीं लगा सकते क्यों की वो खुद तीन हजार वोट पाकर पिछले चुनावों में अपनी जमानत जब्त करवा चुके थे। अमरेश का प्रयोग कांग्रेस मुसलमानों को भावनात्मक रुप से रिझाने के लि‌ए कर रही है कि आपके सवालों को उठाने वाला हमसे ही न्याय की उम्मीद करता है तो फिर आप भी हमसे ही न्याय की उम्मीद करें। सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा की बैशाखी पर बैठ दिग्विजय भले आजमगढ़ पहुंच ग‌ए लेकिन आजमगढ़ में अब भी ओलमा का‌उंसिल की धमक कम नहीं हुयी। इसे दिग्विजय सिंह ने विरोध के दौरान समझा भी होगा। ओलमा का‌उंसिल का क्या भविष्य है इस पर अभी कयास लगाना जल्दी होगा लेकिन आजमगढ़ के युवा‌ओं में उसका क्रेज अभी कायम है।

प्रकृति और मानव


आजकल के लोगों की धारणा है कि प्रकृति के अन्तर्गत जगत्‌ का केवल वही भाग आता है, जो भौतिक स्तर पर अभिव्यक्‍त है । साधारणतः जिसे मन समझा जाता है, उसे प्रकृति के अन्तर्गत नहीं मानते । इच्छा की स्वतन्त्रता सिद्ध करने के प्रयास में दार्शनिकों ने मन को प्रकृति से बाहर माना है । क्योंकि जब प्रकृति कठोर और दृढ़ नियम से बँधी और शासित है तब मन को यदि प्रकृति के अन्तर्गत माना जाय, तो वह भी नियमों में बँधा होना चाहिए । इस प्रकार के दावे से इच्छा की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि जो नियम में बँधा है, वह स्वतन्त्र कैसे हो सकता है? भारतीय दार्शनिकों का मत इसके विपरीत है । उनका मत है कि सभी भौतिक जीवन, चाहे वह व्यक्‍त हो अथवा अव्यक्‍त, नियम से आबद्ध है । उनका दावा है कि मन तथा बाह्य प्रकृति दोनों नियम से, एक तथा समान नियम से आबद्ध हैं । यदि मन नियम के बंधन में नहीं है, हम जो विचार करते हैं, वे यदि पूर्व विचारों के परिणाम नहीं हैं, यदि एक मानसिक अवस्था दूसरी पूर्वावस्था के परिणामस्वरूप उसके बाद ही नहीं आती, तब मन तर्कशून्य होगा, और तब कौन कह सकेगा कि इच्छा स्वतन्त्र है और साथ ही तर्क या बुद्धिसंगतता के व्यापार को अस्वीकार करेगा? और दूसरी ओर, कौन मान सकता है कि मन कारणता के नियम से शासित होता है और साथ ही दावा कर सकता है कि इच्छा स्वतन्त्र है?

नियम स्वयं कार्य-करण का व्यापार है । कुछ पूर्व घटित कार्यों के अनुसार कुछ परवर्ती कार्य होते हैं । प्रत्येक पूर्ववर्ती का पना अनुवर्ती होता है । प्रकृति में ऐसा ही होता है । यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन आबद्ध है और इसलिए वह स्वतन्त्र नहीं है । नहीं, इच्छा स्वतन्त्र नहीं है । हो भी कैसे सकती है? किन्तु हम सभी जानते हैं, हम सभी अनुभव करते हैं कि हम स्वतन्त्र हैं । यदि हम मुक्‍त न हों, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा और न वह जीने लायक ही होगा । प्राच्य दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार किया, अथवा यों कहो कि इसका प्रतिपादन किया कि मन तथा इच्छा देश, काल एवं निमित्त के अन्तर्गत ठीक उसी प्रकार है, जैसे तथाकथित जड़ पदार्थ हैं । अतएव, वे कारणता की नियम में आबद्ध है । हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं, जो कुछ है, उन सबका अस्तित्व देश और काल में है । सब कुछ कारणता के नियम से आबद्ध है । इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु है । अन्तर केवल स्पंदन की मात्रा में है । अत्यल्प गति से स्पंदनशील मन को जड़ पदार्थ के रूप में जाना जाता है । जड़ पदार्थ में जब स्पंदन की मात्रा का क्रम अधिक होता है, तो उसे मन के रूप में जाना जाता है । दोनों एक ही वस्तु है, और इसलिए अब जड़ पदार्थ देश, काल तथा निमित्त के बंधन में है, तब मन भी जो उच्च स्पंदनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है ।

प्रकृति एकरस है । विविधता अभिव्यक्‍ति में है । ‘नेचर’ के लिए संस्कृत शब्द है प्रकृति, जिसका व्युत्पत्त्यात्मक अर्थ है विभेद । सब कुछ एक ही तत्व है, लेकिन वह विविध रूपों में अभिव्यक्‍त हुआ है । मन जड़ पदार्थ बन जाता है और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है । यह केवल स्पंदन की बात है । इसपात का एक छड़ लो और उसे इतनी पर्याप्त शक्‍ति से आघात करो, जिससे उसमें कम्पन आरम्भ हो जाय । तब क्या घटित होगा? यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाय तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनि, भनभनाहट की ध्वनि । शक्‍ति की मात्रा बढ़ा दो, तो इसपात का छड़ प्रकाशमान हो उठेगा तथा उसे और अधिक बढ़ाओ, तो इसपात बिल्कुल लुप्त हो जायेगा । वह मन बन जायेगा । एक अन्य दृष्टान्त लो- यदि मैं दस दिनों तक निराहार रहूँ, तो मैं सोच न सकूँगा । मन में भूले-भटके, इने-गिने विचार आ जायेंगे । मैं बहुत अशक्‍त हो जाऊँगा और शायद अपना नाम भी न जान सकूँगा । तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ, तो कुछ ही क्षणों में सोचने लगूँगा । मेरी मन की शक्‍ति लौट आयेगी । रोटी मन बन गयी । इसी प्रकार मन अपने स्पंदन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को अभिव्यक्‍त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है ।

इनमें पहले कौन हुआ- जड़ वस्तु या मन, इसे मैं सोदाहरण बताता हूँ । एक मुरगी अंडा देती । अंडे से एक और मुरगी पैदा होती है और फिर इस क्रम की अनन्‍त श्रृंखला बन जाती है । अब प्रश्‍न उठता है कि पहले कौन हुआ, अंडा या मुरगी? तुम किसी ऐसे अंडे की कल्पना नहीं कर सकते, जिसे किसी मुरगी ने न दिया हो और न किसी मुरगी की कल्पना कर सकते हो, जो अंडे से न पैदा हुई हो । कौन पहले हुआ, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । करीब करीब हमारे सभी विचार मुरगी और अंडे के गोरखधंधे जैसे हैं । अत्यन्त सरल होने के कारण महान्‌ से महान्‌ सत्य विस्मृत हो गये । महान्‌ सत्य इसलिए सरल होते हैं कि उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता होती है । सत्य स्वयं सदैव सरल होता है । जटिलता मनुष्य के अज्ञान से उत्पन्‍न होती है ।

मनुष्य में स्वतन्त्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो आबद्ध है । वहाँ स्वतन्त्रता नहीं है । मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है । आत्मा नित्य मुक्‍त, असीम और शाश्‍वत है । मनुष्य की मुक्‍ति इसी आत्मा में है । आत्मा नित्य मुक्‍त है, किन्तु मन अपनी ही क्षणिक तंरगों से तद्रूपता स्थापित कर आत्मा को अपने से ओझल कर देता है और देश, काल तथा निमित्त की भूलभुलैया -माया में खो जाता है । हमारे बंधन का कारण यही है । हम लोग सदा मन से तथा मन के क्रियात्मक परिवर्तनों से अपना तादात्म्य कर लेते हैं । मनुष्य का स्वतन्त्र आत्मा में प्रतिष्ठित है और मन के बंधन के बावजूद आत्मा अपनी मुक्‍ति को समझते हुए बराबर इस तथ्य पर बल देती रहती है, ‘मैं मुक्‍त हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ !’ यह हमारी मुक्‍ति है । आत्मा-नित्य मुक्‍त, असीम और शाश्‍वत- युग युग से अपने उपकरण मन के माध्यम से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्‍त करती आयी है । तब प्रकृति से मानव का क्या सम्बन्ध है/ निकृष्टतम प्राणियों से लेकर मनुष्यपर्यन्त आत्मा प्रकृति के माध्यम से अपने को अभिव्यक्‍त करती है व्यक्‍त जीवन के निकृष्टतम रूप में भी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्‍ति अंतर्भूत है और विकास कही जानेवाली प्रक्रिया के माध्यम से वह बाहर प्रकट होने का उद्योग कर रही है ।

विकास की सभी प्रक्रिया अपने को अभिव्यक्‍त करने के निमित्त आत्मा का संघर्ष है । प्रकृति के विरूद्ध यह निरंतर चलते रहनेवाला संघर्ष है । मनुष्य आज जैसा है, वह प्रकृति से अपनी तद्रूपता का नहीं, वरन्‌ उससे अपने संघर्ष का परिणाम है । हम यह बहुत सुनते हैं कि हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य करके और उससे समस्वरित होकर रहना चाहिए । यह भूल है । यह मेज, यह घड़ा, खनिज पदार्थ, वृक्ष सभी का प्रकृति से सामंजस्य है । पूरा सामजस्य है, कोई वैषम्य नहीं । प्रकृति से सामंजस्य का अर्थ है गतिरोध, मृत्यु । आदमी ने यह घर कैसे बनाया? प्रकृति से समन्वित होकर? नहीं । प्रकृति से लड़कर बनाया । मानवीय प्रगति प्रकृति के साथ सतत संघर्ष से निर्मित हुई है, उसके अनुसरण द्वारा नहीं ।