Friday, February 12, 2010

ज्योतिष के द्वारा कैरियर का चुनाव सही है


27 जनवरी 2010 को रात्रि 10 बजे के आसपास स्टार न्यूज पर लाइव बहस का प्रोग्राम जो कि नोएडा के एक स्कूल में बच्चों के कैरियर काउसलिंग हेतु एक दो घंटे का ज्योतिष क्लासेज चलाए जाने के विषय पर था, इस बहस में ज्योतिषाचार्य, मनोवैज्ञानिक, तर्कशास्त्री स्कूली बच्चे, अभिभावक तथा स्कूल के प्रिंसिपल आदि लोगों ने हिस्सा लिया ।

हमारे देश में किशोरावस्था के बाद बच्चों के कैरियर को लेकर आभिभावकों को बहुत सारी दुविधाएँ रहती हैं । एक तरफ बच्चों के मन की आकांक्षाएं जो कि बहुत हद तक भौतिक परिवेश व भौतिकता के चमक-दमक से प्रभावित होती हैं वहीं दूसरी ओर अभिभावकों के मन में अपने नौनिहालों से जुड़े सपने को लेकर उनपर दबाव और एक तरफ तो इनकी अपनी पढ़ाई की क्षमता व अपने स्वभाव के अनुकूलता को देखते हुए कैरियर के प्रति दुविधा तो स्वाभाविक है । उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि एक बच्चा बहुत साइंस, मैथ्स आदि विषयों में बड़ा अच्छा परिणाम दे रहा है, इसके आधार पर टीचर या अभिभावक साइंस से संबंधित विषयों पर जाएं तो वह कह सकते हैं कि बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर बन सकता है । परन्तु यदि बच्चा अपने कोमल मन में कल्पनाओं, सपनों के जाल से इस कदर प्रभावित है, कि अमिताभ, शाहरूख खान, आमिर खान, उसके जीवन के लक्ष्य में शामिल हो सकते हैं । ऐसी स्थिति में कैरियर का आकलन कौन कर सकता है ? यदि बच्चा अपने ही सपनों में रह कर चले तो क्या गारंटी हैं कि उसे अपने सपनों में सफलता मिल ही जाएगी । तो क्या गारंटी है कि ये कोमल मन दो चार पाँच साल बाद अपने इस लक्ष्य से दिग्भ्रमित नहीं होगा । बहुत से ऐसे बच्चे जो शुरू में पढ़ाई में कमजोर होते हैं और बाद में मजबूत हो जाते हैं, बहुत से ऐसे बच्चे होते हैं जो शुरू में मजबूत और बाद में कमजोर हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में बच्चे के साथ रहने वाले बच्चे के माँ-बाप इन परिवर्तनों का अनुमान तो लगा ही नहीं सकते फिर मनोचिकित्सक किस आधार पर इस बात को जान सकते हैं । एक अच्छा भला आदमी उम्र के किस पड़ाव में सिजोफ्रेनिया, फोबिया व अन्य मानसिक रोगों से कब ग्रसित हो जाय, इनका अंदाजा मनोचिकित्सक तो पहले लगा हीं नहीं सकता, हाँ जब लक्षण होते हैं तो चिकित्सक डाइग्नोस कर सकते हैं । ज्योतिष एक ऐसा विज्ञान है, जिससे आप आदमी का स्वभाव ही नहीं उसके पूरे जीवन के मानसिक एकाग्रता, सोच, स्वभाव में परिवर्तन, स्वास्थ्य में परिवर्तन आदि का आंकलन पहले से ही कर सकता है । ज्योतिष ही एक ऐसा विज्ञान है, जिसमें हम वर्तमान में बच्चों की स्थिति, उसके पिछली पढ़ाई की स्थिति, आगे पढ़ाई की स्थिति, और उसके आगे लक्ष्य में परिवर्तन आदि की स्थिति का पहले आकलन कर सकते हैं, तथा उसे पहले ही दिशा दे सकता है, वैसे ज्योतिष तो ये मानता है कि हर चीज पूर्व निर्धारित है, इसलिए होना वही है जो उसके जन्म के समय निर्धारित हुआ है । लेकिन ज्योतिष विज्ञान फेबरबुल व अनफेबरबुल (कारक व अकारक) दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करके भविष्य का आंकलन करता है । जिस पर ये पूरी सृष्टि बाइंडिंग एनर्जी के तहत विजुवल रूप लेती है, ठीक उसी प्रकार ज्योतिष भी ऋणात्मक व धनात्मक दो तरह के ऊर्जीय सत्ताओं को जोड़ने वाला, एक न्यूट्रल सत्ता को मिलाकर संसार की संरचना का नही, यानि इन तीनों तरह की ऊर्जाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन तरह के ग्रहों के समूह का तुलनात्मक अध्ययन ही ज्योतिष है ।

प्राचीन काल में हमारे यहाँ विज्ञान, इलाज, शिक्षा आदि तरह के कार्यों का जिम्मा सिर्फ ऋषिओं मुनियों का ही था और ये इतने ज्ञानी होते थे कि ये अपने ईगो और प्रतिस्पर्धा के कारण अपने ज्ञान को आम जन मानस तक बहुत आसानी से बांटते नहीं थे बल्कि जनमानस तक अपने ज्ञान का स्वरूप आस्था के रूप में प्रकट करते थे ताकि समाज इनसे जुड़ा रहे तथा एक भय वश इनके सामाजिक बंधन में जुड़ा रहे । अगर ऐसा नहीं होता तो आप सभी जरा सोचिए कि जो विज्ञान आज सृष्टि का आधार पदार्थ भी संरचना का सूक्ष्मतम कण, प्रोटान, इलेक्ट्रॉन व न्यूट्रॉन को अपनी बाइंडिंग एनर्जी को आधार मानता है, और इसी को अपने शब्दों में हमारे ऋषि मुनियों ने ब्रह्‌मा, विष्णु, महेश बोले हैं । अगर ब्रह्मा को देखा जाए तो बह्मा की जो ऊर्जामयी छवि का वर्णन प्रस्तुत किया गया है, वह एकदम जैसे प्रोटॉन की छवि के तरह ही है, क्योंकि प्रोटॉन ही धनात्मक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है । चूंकि इलेक्ट्रॉन ऋणात्मक प्रतिनिधित्व करता है और हमारे यहाँ शिव का आवरण जो बनाया गया है वह काला ठंडा । इन इन दोनों ऊर्जाओं को जोड़कर के बाइंडिंग ऊर्जा पैदा करने वाले तीसरे ऊर्जा का नाम है न्यूट्रॉन । ये न्यूट्रॉन ही इन दोनों ऊर्जाओं के बीच में पाई (निशान) उत्पन्‍न कर एक पदार्थ स्वरूप को विजुअल रूप देता है, और विष्णु हमारे उसी ऊर्जा स्वरूप के प्रतिनिधित्व के रूप में बताये गये हैं । जब ये इतनी छोटी सी बात अपने आप में इतना बड़ा रहस्य लिये हुए है तो फिर हमारे यहाँ ज्योतिष तो विज्ञान का पितामह स्वरूप है । यही नहीं ज्योतिष द्वारा इलाज पद्धति आयुर्वेद काफी कुछ आगे तक एडवांस पद्धति बहुत पहले से लिये चला आ रहा है । उदाहरण स्वरूप एक डॉक्टर जब किसी व्यक्‍ति के पेट में पाचन क्रिया का ठीक हो जाना या एसिड बनता है तो डॉक्टर कहता है कि उसका मेटाबॉलिक सिस्टम ठीक हो गया है लेकिन आयुर्वेद ही इस बीमारी में अलग-अलग व्यक्‍तियों में अलग-अलग नजरिया रखता है । यह ये भी देखता है कि इसके पेट में हाइड्रोक्लोरिक एसिड की अधिकता से पेट खराब हुआ है या कम होने से हुआ है । क्योंकि दोनों को दो नाम देते हैं, जिस में हाइड्रोक्लोरिक एसिड की अधिकता होती है उसे जठराग्नि तथा जिसमें कम होती है उसे मंदाग्नि कहते हैं । अतः यहां पर आयुर्वेद के हिसाब से जठराग्नि हमेशा कफ प्रधान शरीर में होता है और मंदाग्नि हमेशा पित्तज प्रधान शरीर में होता है यानि आयुर्वेद इलाज शरीर के प्रकृति के आधार पर करता है । अतः हम यहां कहना चाहेंगे हमारे यहाँ का ज्ञान विशेषकर आयुर्वेद और ज्योतिष पूर्णतः वैधानिक वैज्ञानिक एवं जांचा परखा तथा अनुभव के आधार पर ही बनाया गया है । अलबत्ता हमारी संस्कृति पर इतनी बार आक्रमण हुआ है कि हमने अपनी भाषा ही खो दी है, और किसी भी ज्ञान का संवाहक भाषा ही होती है, इस कारण इसका प्रचार-प्रसार यह महत्ता हम जगजाहिर नहीं कर पाये । व्यर्थ ही जो हमारे यहाँ बुद्धिजीवी व ज्ञानी लोग थे उन्होंने अपने ज्ञान को छुपाने की कोशिश की ताकि उनकी भी महत्ता समाज में बनी रहे लेकिन आज सारा विश्‍व इन चीजों को बहुत तेजी से महसूस कर रहा है, एवं ज्योतिष की तरफ आकर्षित कर रहा है । ये अलग बात है कि इस क्षेत्र में अगर विज्ञान के छात्र आयें तो ज्यादा रचनात्मकता दिखा सकते हैं । इस क्षेत्र के जरिये कैरियर काउसिलिंग की पहल करना काफी अच्छा होगा, इससे पूर्वाग्रह और स्वार्थी तत्वों के अल्प ज्ञान के ज्योतिषियों से मिलकर इसके लिए पूर्वाग्रह ना अपनाकर एक सकारात्मक सोच अपनाते हुए, विद्वान व्यक्‍तियों का समावेश किया जाना चाहिए, निःसंदेह इस क्षेत्र से कैरियर काउसलिंग काफी अच्छा साबित होगा ।

Wednesday, February 3, 2010

नव वर्ष की शुभ कामनायें

वक्‍त अपना दस्तूर निभाते हुए एक बार पुनः कुछ खट्‌टी-मीठी यादों भरे २००९ को अपने आगोश में समेट कर चला गया और सपनों, आकाक्षांओं, महत्वाकांक्षों एवं आशाओं से भरे सन्‌ २०१० को हमारी झोली में डाल दिया है । जिसका हम सभी बड़े उत्साह से स्वागत कर रहे हैं । सर्वप्रथम अपने पाठकों को वर्ष २०१० के लिए ढेर सारी शुभ कामनाएं देता हूँ कि यह वर्ष उनके सारे सपनों, महत्वाकांक्षाओं व आशाओं को पूर्ण करे, और ईश्‍वर उन्हें सुख, धैर्य और सन्तोष के साथ ही उनके दिमाग को रचनात्मक व अच्छे विचारों से सिंचित करे । नए वर्ष का यह पहला अंक “नई चुनौती, नए पड़ाव” आपके समक्ष प्रस्तुत है जिसमें राजनैतिक गलियारों से २००९ के राजनैतिक परिदृश्य के जरिए यह दर्शाया गया कि राजनीति में कौन अर्थ पर था तो कौन फर्श पर था । खेल जगत में धोनी के धुरन्धरों की पोल खोलती, एक समीक्षा जिसमें आस्ट्रेलिया सीरीज हाथ से जाने की चूक की एक समीक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय कालम्‌ में भारत व रूस की सन्धि एक सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ते कदम । साथ ही २००९ में ही राहुल बाबा के राजनैतिक हीरो या कांग्रेस के शोमैन बनकर उभरने की समीक्षा, स्वास्थ्य जगत में २००९ में स्वाईन फ्लू एक बड़ा मुद्दा बना रहा है जिसका कहर अब भी जारी है । अतः इस अंक में प्रस्तुत है एक लेख जिसमें फ्लू व स्वाईन फ्लू में अन्तर और स्वाईन फ्लू से बचाव व उपाय दर्शाया गया है ।इस वर्ष की ऐतिहासिक उपलब्धि मास्टर ब्लास्टर सचिन तेन्दुलकर की रही है जिसने विश्‍व में भारत का गौरव बढ़ाया है । सचिन के गौरवशाली सफर की और उनके अविस्मणीय उपलब्धियों को समय दर्पण की टीम सलाम करती है, उनके क्रिकेट के गौरवीय जीवन को दर्शाने का प्रयास करता है । साथ में समसामायिक में कैलेण्डरों के उत्पत्ति का इतिहास को भी जानने को मिलेगा । ज्योतिष में वर्ष २०१० की वार्षिक राशिफल के साथ-साथ २०१० ज्योतिषीय आधार पर शेयर-बाजार की स्थिति एवं भारत की आर्थिक स्थिति एवं राजनैतिक स्थिति में दर्शाया गया है । उपरोक्‍त विषय वस्तु के अलावा अन्य बहुत सारी रूचिकर सामग्री पढ़ने को मिलेगा । अतः आशा है उपरोक्‍त सारे विषय वस्तु पर आधारित हमारा यह अंक आपको पसन्द आएगा हम हमेशा आपके अनमोल सुझावों की प्रतीक्षा में हैं । आपसे आग्रह है कि अपने सुझाव भेजकर हमें अनुगृहित करें ।एक बार पुनः आपको वर्ष २०१० की ढेर सारी शुभकामनाएं ।

आस्था

आस्था भावनाओं व विश्‍वास में लिप्त वह शब्द है, जिसके बहुमतलबी आयाम होते हैं । आस्था द्वारा किसी समाज को सुसंस्कृत, व्यवस्थित व संगठित भी किया जा सकता है और आस्था द्वारा किसी समाज का भावनात्मक शोषण भी किया जा सकता है क्योंकि सारी जीव जाति भावनाओं की मिट्टी से बने हैं और जीवन जीने के लिए भावना रूपी ऊर्जा की नितांत आवश्यकता है । हर पग-पग, हर संबंध में मधुरता हेतु विश्‍वास की भी तो आवश्यकता होती ही है लेकिन उस संबंध को प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचाने हेतु, अपने से सर्वोपरि बनाने हेतु व उस संबंध में आदर बनाने हेतु आस्था जैसे भावनात्मक शब्द की उत्पत्ति हुयी है । परन्तु कतिपय इसका यह तात्पर्य नहीं है कि किसी भी समाज का जो अग्रज-पथ-प्रदर्शक येन-केन-प्रकारेण किसी भी प्रकार से ऐसे पद प्राप्त करने वाला व्यक्‍ति इसका गलत लाभ उठाये अगर ऐसा करते हैं तो वो कहीं से भी समाज के ‘मार्गदर्शक’ नहीं हैं । बल्कि अपने स्वार्थ निहित मन के कारण ये ऐसा चोला पहन रखे हैं । समाज के अग्रज हमेशा संत का जीवन जीते हैं समाज ही क्यों बल्कि एक परिवार का मुखिया का मुखिया भी परिवार को चलाने हेतु त्याग करता है फिर तो समाज एक बहुत बड़ा परिवार है, एक बहुत बड़ा दलस्त है । ये कुछ स्वार्थी लोग हमारे आस्था रूपी भावनाओं का मजाक इसलिए बना लेते हैं क्योंकि हमारा समाज या हम दिन-प्रतिदिन अपने संबंधों के मजबूत संगठन को कमजोर करते जा रहे हैं । समयाभाव, चिंताएं, तनाव के मध्य हम अपने संबंधों में भावनात्मक आदान-प्रदान की कमी उत्पन्‍न कर रहे हैं और जब संबंधों के बीच भावनात्मक आदान-प्रदान नहीं होगा तो हमारी उत्पन्‍न भावनात्मक ऊर्जाएं किसी ना किसी पर न्यौछावर तो होंगी ही , क्योंकि हम अपने पारिवारिक वातावरण में भावनात्मक अतृप्ति के शिकार होते हो तो भावनात्मक मन अपने अतृत्प्ति को दूर करने हेतु तो भावनात्मक मन किसी ना किसी संबंध में उत्पन्‍न भावनात्मकता का हिसाब करेगा । ठीक उसी प्रकार जैसे पेट में हाइड्रोक्लोरिड एसिड भोजन के पाचन हेतु स्त्राव होता है और यदि पेट में भोजन ही ना हो तो हाइडोक्लोरिड एसिड का यूज नहीं हो पायेगा और उत्पन्‍न एसिड आमाशय के अन्य ऑरगन्स को क्षति पहुँचा सकता है, या विकृति उत्पन्‍न कर सकता है, ठीक उसी प्रकार हमारा भावनात्मक रूप से अतृप्त मन उसमें सिंचित भावनात्मक ऊर्जाएं हमें भावनात्मक रूप से सुखहीन अरूचिकर बनाती हैं । क्योंकि हम अपने पारिवारिक वातावरण में भावनात्मक अतृप्ति के शिकार होते हैं तो वो भावनात्मक मन अपने अतृप्ति को दूर करने हेतु वो भावनात्मक मन किसी ना किसी संबंध में उत्पन्‍न भावनात्मक ऊर्जा का हिसाब करेगा और यदि किसी अच्छे संबंध में ये आपूर्ति होती है तो निश्‍चित रूप से सकारात्मक परिणाम निकलते हैं, लेकिन गलत संबंधों में आदमी शोषित ही होता है । और यदि किसी अच्छे संबंध में ये आपूर्ति होती है तो निश्‍चित रूप से सकारात्मक परिणाम निकलते हैं लेकिन गलत संबंधों में आदमी शोषित ही होता है लेकिन किसी भी अन्य संबंध में भावनात्मक आदान-प्रदान अगले संबंध में दिखावे, प्यार के प्रदर्शन पर निर्भर करता है और अगला संबंध, दिखावा, प्रदर्शन करने वाला अक्सर स्वार्थी ही होता है । क्योंकि स्वार्थी व्यक्‍ति एक्सप्रेसिव नहीं होता । आज नये-नये बाबाओं के चेहरे धर्मगुरूओं में या सत्संगियों के रूप से उभर कर सामने आ रहे हैं । उनका जीवन खुद ही असंतोष और अतृप्ति से भरा पड़ा है क्योंकि हम सभी जानते हैं कि तृप्त, संतुष्ट या वास्तव में संत व्यक्‍ति को दिखावा, भौतिकता, माया या हूजूम लगा कर के भीड़ जुटाकर के चिल्‍लाने की आवश्यकता नहीं होती है, इसका मतलब ये है कि एक आम आदमी से ज्यादा भावनात्मक संबंधों द्वारा बाजारीकरण का जाल ये बाबा लोग बुन रहे हैं, जिसका आम आदमी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शिकार हो रहे हैं । हम सभी के पास अपनी समस्याओं का इलाज स्वयं में ही निहित है जरूरत है अपने संबंधों में समय देने की हर संबंध में खुल कर के अपने भावनाओं को प्रस्तुत करने की, प्यार बांटने की अर्थात जी भर के संबंधों को जीने की । साथ ही यह भी कहना चाहूंगा कि बीती बातों और संबंधों में गिले-शिकवे भूलकर हमारे पास जो भी है जैसा भी है हमारे पास दुनिया का सबसे प्यारा संबंध है तो देखिए प्यार व भावनात्मक तृप्ति खुद-ब-खुद पैदा होगी और मन भी खुशी से बढ़कर सुख कुछ भी नहीं होता, और सुखी मन के पास ना दुख आता है ना हीं बीमारियां आती हैं साथ ही संबंधों के संगठित होने से आत्मबल खुद ही बढ़ा रहेगा और समस्याएं छोटी नजर आयेंगी । तब किसी बाबा की आवश्यकता नहीं होगी, चूँकि आये दिन ये अपने ग्लैमर शब्दों के प्रभाव चकाचौंध से परिपूर्ण भौतिकता का आवरण ओढ़े सिर्फ और सिर्फ अपने आप को मजबूत कर रहे हैं, और हम भी इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ठगे जा रहे हैं । क्या आपको नहीं लगता कि जिसने पैदा किया था जिसने पाला था जिस भाई-बंधु के साथ जीवन बिताया या जिस जीवन साथी के साथ जीवन भर चलने की कसमें खाईं, इन सभी संबंधों में व्यस्तता जिंदगी की जद्‌दोजहद में अपने से पिछड़ जाने के भयवश क्या जो भावनात्मक आदान-प्रदान की कमी हो रही है इससे संबंधों के प्यार रूपी बंधन को कमजोर नहीं करते जा रहे हैं और इसी के कारण खुशी की कमी, तनाव आदि के शिकार हो रहे हैं । हम कितने बड़े बेवकूफ हैं कि चार दिन में मीडिया द्वारा पैदा हुआ एक नाम बाबा और स्वामी के रूप में सामने आते हैं और हम उनपर आस्था करने लगते हैं । और उपरोक्‍त जिन संबंधों के साथ जीते हैं, जिनके साथ खून का रिश्ता है, जिन्हें हम बचपन से जानते हैं जैसे दोस्त यार, पड़ोसी इन पर विश्‍वास भी नहीं कर पाते । अगर इन संबंधों पर विश्‍वास की डोर बनाए रहें तो कतिपय हमें बहुरूपी बाबाओं पे आस्था की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि मानव मन बड़ा अजीब है जिसे ढंग से नहीं जानता अगर उनकी महिमामंडित करके उसके सामने रखा जाए उसके प्रति आस्था तो पाल लेता है लेकिन जिसे वह बचपन से जानता हो और उसके लिए अपने पूजनीय जैसे कार्य भी ये हो तो भी उसके प्रति आस्था नहीं जग पाती है । इसलिए हमें अपने ही रिश्‍तों में आस्था की सर्वाधिक जरूरत है जिन्हें हम जानते हैं उनपर विश्‍वास करें । जिन्हें हम जानते ही नहीं उस पर कैसे विश्‍वास कर सकते हैं, आस्था तो बहुत बड़ी बात है ।