Saturday, July 24, 2010

गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन कांग्रेसी राजनीति की दोहरी चाल


आजमगढ़ में दिग्विजय सिंह की यात्रा और उसके बाद गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन कांग्रेसी राजनीति की दोहरी चाल को दर्शाती है । पहले तो कांग्रेस डेढ़ साल बाद सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का नया मुखौटा लगाकर आजमगढ़ गयी और उसके बाद मुसलमानों से यह प्रमाण पत्र ली कि वह आजमगढ़ के पीड़ित उन परिवारों से मिली है। इस प्रमाण को लेकर अब उसे वोट की राजनीति में तब्दील करने के प्रयास में है। गोरखपुर समेत तरा‌ई वाले पूरे क्षेत्र में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ पर क‌ई सांप्रदायिक दंगों और हमलों के आरोप हैं। उत्तर प्रदेश की अपराधियों और माफिया‌ओं की सूची में भी योगी पहले स्थान पर हैं। ऐसे में कांग्रेस बिना आजमगढ़ ग‌ए अगर गोरखपुर सम्मेलन करती तो उस पर सवाल जरुर उठता कि कांग्रेस ने ही आतंकवाद के नाम पर बाटला हा‌उस में मासूमों को मरवाया और दर्जनों पर आतंकी होने का आरोप लगा अब किस मुंह से गोरखपुर में सम्मेलन कर रही है। दूसरा कांग्रेस यह जानती थी कि वह अगर आजमगढ़ जा‌एगी तो भाजपा जरुर उसका विरोध करेगी और भावनात्मक आधार पर वो मुसलमानों में यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि कांग्रेस मुस्लिम हितैषी है और जिसका प्रमाण होगा भाजपा विरोध जिसको कांग्रेस को कहने की को‌ई जरुरत नहीं होगी और हु‌आ भी ऐसा।

इसीलि‌ए कांग्रेस आगे आजमगढ़ फिर गोरखपुर गयी। इसका फायदा कांग्रेस को जरुर मिलेगा क्योंकि योगी के आतंक से पूरा क्षेत्र आतंकित है चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान। अब यहां के लोगों में एक न‌ए ढर्रे की राजनैतिक आकांक्षा है और इसे कांग्रेसी बखूबी समझ रहे हैं। इस राजनैतिक आकांक्षा का अंदाजा डा0 अयूब की पीस पार्टी और ओलमा का‌उंसिल से आसानी से लगाया जा सकता है। कुछ समय पहले तक कांग्रेस के एजेंडे में था कि ऐसे दलों को समाहित कर लिया जाय। इसके लि‌ए उसने राजभर जाति के नेता के तौर पर् उभरे ओम प्रकाश राजभर से भी बीते कुछ वर्षों में साठ-गांठ करने की कोशिश की पर मामला बन नहीं पाया। पिछली 27 जनवरी को पीस पार्टी के डा0 अयूब, भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर और रामविलास पासवान ने जो खलीबाद में ‘गुलामी तोड़ो समाज जोड़ो’ के नारे के साथ नया गठजोड़ बनाया उससे कांग्रेस सकते में आ गयी। क्योंकि तरा‌ई के क्षेत्र में कांग्रेस को मिली सफलता का एक बड़ा कारण था पीस पार्टी का चुनाव में उतरना। केंद्र में भाजपा का को‌ई खतरा नहीं था। ऐसे में मुसलमान नया प्रयोग करना चाह रहा था। लेकिन प्रयोग में फायदा कांग्रेस को हु‌आ। पीस पार्टी ने सामाजिक न्याय के झंडा बरदारों वो चाहे सपा हो या फिर बसपा का ही वोट पाया। ऐसे में कांग्रेस को मजबूती मिली उसके उदार हिंदू और उदार मुस्लिम वोटरों या कहें कि ऐसा तबका जो योगी से त्रस्त था और दूसरे विकल्प के रुप में पीस पार्टी को नहीं देख रहा था उसने कांग्रेस की झोली में अपना मत दिया और यह रुझान अब भी कायम है। लेकिन ओलमा का‌उंसिल भी अपने को इस क्षेत्र में स्थापित करने की कोशिश में है। कांग्रेसी लगातार यह प्रचारित करने की कोशिश में लगे हैं कि बाटला हा‌उस के नाम पर ओलमा का‌उंसिल सियासत कर रही है, तो वहीं ओलमा का‌उंसिल अपने को एक राजनैतिक दल के रुप में स्थापित करने की कोशिश में लगी है।

आजमगढ़ियों में इस यात्रा ने एक मजबूत गांठ बना दी है कि अब को‌ई जांच नहीं होने वाली है। कांग्रेस ने यह सब एका‌एक नहीं किया। इसकी तैयारी उसने लोकसभा चुनावों के पहले ही शुरु कर दी थी पर गोटी नहीं फिट हुयी। बाटला हा‌उस के बाद आजमगढ़ में बने ओलमा का‌उंसिल से उसने बात की पर ओलमा का‌उंसिल ने साफ कहा कि दिग्विजय सिंह जो बाटला हा‌उस को बंद कमरे में फर्जी मानते हैं इसे खुले तौर पर आगे कहें। पर इतनी हिम्मत न दिग्विजय में हुयी न उनके युवराज या और न उनके किसी आका में। पर चाहे जो हो इस यात्रा का आजमगढ़ के कांग्रेसी वोटों के समीकरण पर को‌ई प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है क्योंकि वहां न उनके पास नेता है न ऐसे समीकरण जिनके बूते वे कुछ कर पा‌एं। जो कांग्रेसियों ने आतंकवाद के नाम पर किया उसका फायदा भाजपा-योगी जैसे लोगों ने सांप्रदायिकता भड़काने में किया। दूसरा मुसलमानों की हितैषी सपा का चेहरा भी बेनकाब हु‌आ। ऐसा नहीं है कि सपा इन घटना‌ओं के बाद सवालों को नहीं उठायी थी । सपा ने अबू बसर और बाटला हा‌उस के बाद दो विशाल जनसभा‌एं कीं। पर सपा का हिंदू वोटर या कहें कि यादव इसे आसानी से नहीं पचा पाया और जिसमें आजमगढ़ के रमाकांत यादव का व्यक्तिगत प्रभाव भी आड़े में आया। ऐसे में टूटते एमवा‌ई समीकरण में मुसलमानों की ओलमा का‌उंसिल उस समय स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी। बाद में उसके राजनीतिक होने पर थोड़ा उसका पावर बैलेंस कम हु‌आ लेकिन आजमगढ़ का मुस्लिम युवा यह जानता है कि उस पर अगर को‌ई ज्यादती होगी तो ओलमा का‌उंसिल ही सामने आ‌एगी। और यह कोरी लफ्फाजी नहीं है इसे ओलमा का‌उंसिल को मिले वाटों में आसानी से देखा जा सकता है। अब एक न‌ए समीकरण की जुगत में अमर सिंह लगे हैं लेकिन अभी उनका मूल्यांकन करना जल्दीबाजी होगा।

दिग्विजय सिंह ने अमरेश मिश्रा के माध्यम से आजमगढ़ में घुसने का प्रयत्न किया। और अमरेश को सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का गठन कर प्रभारी बनाया। कांग्रेसी न्याय के समीकरण के चलते उसी दिन खबरों में रहा कि शिवानी भटनागर हत्या कांड के आरोपी आरके शर्मा को जमानत मिली जो अमरेश के ससुर हैं। अमरेश वामपंथ से होते हु‌ए 1857 पर किताब लिख, सांप्रदायिक दंगों और बाबरी विध्वंस के आरोपी लाल कृष्ण आडवाणी से उसका विमोचन करवाया। और इसके बाद यूडी‌एफ होते हु‌ए ओलमा का‌उंसिल का सफर तय किया। अमरेश ने बाटला हा‌उस पर सवाल उठा‌ए थे ऐसे में कांग्रेस के लि‌ए अमरेश काफी महत्वपूर्ण थे जो आजमगढ़ में उन्हें ले जा सकते थे। पर कांग्रेस यह भी अच्छी तरह भाप रही है कि अमरेश उसे वोटों की गणित में पार नहीं लगा सकते क्यों की वो खुद तीन हजार वोट पाकर पिछले चुनावों में अपनी जमानत जब्त करवा चुके थे। अमरेश का प्रयोग कांग्रेस मुसलमानों को भावनात्मक रुप से रिझाने के लि‌ए कर रही है कि आपके सवालों को उठाने वाला हमसे ही न्याय की उम्मीद करता है तो फिर आप भी हमसे ही न्याय की उम्मीद करें। सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा की बैशाखी पर बैठ दिग्विजय भले आजमगढ़ पहुंच ग‌ए लेकिन आजमगढ़ में अब भी ओलमा का‌उंसिल की धमक कम नहीं हुयी। इसे दिग्विजय सिंह ने विरोध के दौरान समझा भी होगा। ओलमा का‌उंसिल का क्या भविष्य है इस पर अभी कयास लगाना जल्दी होगा लेकिन आजमगढ़ के युवा‌ओं में उसका क्रेज अभी कायम है।

प्रकृति और मानव


आजकल के लोगों की धारणा है कि प्रकृति के अन्तर्गत जगत्‌ का केवल वही भाग आता है, जो भौतिक स्तर पर अभिव्यक्‍त है । साधारणतः जिसे मन समझा जाता है, उसे प्रकृति के अन्तर्गत नहीं मानते । इच्छा की स्वतन्त्रता सिद्ध करने के प्रयास में दार्शनिकों ने मन को प्रकृति से बाहर माना है । क्योंकि जब प्रकृति कठोर और दृढ़ नियम से बँधी और शासित है तब मन को यदि प्रकृति के अन्तर्गत माना जाय, तो वह भी नियमों में बँधा होना चाहिए । इस प्रकार के दावे से इच्छा की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि जो नियम में बँधा है, वह स्वतन्त्र कैसे हो सकता है? भारतीय दार्शनिकों का मत इसके विपरीत है । उनका मत है कि सभी भौतिक जीवन, चाहे वह व्यक्‍त हो अथवा अव्यक्‍त, नियम से आबद्ध है । उनका दावा है कि मन तथा बाह्य प्रकृति दोनों नियम से, एक तथा समान नियम से आबद्ध हैं । यदि मन नियम के बंधन में नहीं है, हम जो विचार करते हैं, वे यदि पूर्व विचारों के परिणाम नहीं हैं, यदि एक मानसिक अवस्था दूसरी पूर्वावस्था के परिणामस्वरूप उसके बाद ही नहीं आती, तब मन तर्कशून्य होगा, और तब कौन कह सकेगा कि इच्छा स्वतन्त्र है और साथ ही तर्क या बुद्धिसंगतता के व्यापार को अस्वीकार करेगा? और दूसरी ओर, कौन मान सकता है कि मन कारणता के नियम से शासित होता है और साथ ही दावा कर सकता है कि इच्छा स्वतन्त्र है?

नियम स्वयं कार्य-करण का व्यापार है । कुछ पूर्व घटित कार्यों के अनुसार कुछ परवर्ती कार्य होते हैं । प्रत्येक पूर्ववर्ती का पना अनुवर्ती होता है । प्रकृति में ऐसा ही होता है । यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन आबद्ध है और इसलिए वह स्वतन्त्र नहीं है । नहीं, इच्छा स्वतन्त्र नहीं है । हो भी कैसे सकती है? किन्तु हम सभी जानते हैं, हम सभी अनुभव करते हैं कि हम स्वतन्त्र हैं । यदि हम मुक्‍त न हों, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा और न वह जीने लायक ही होगा । प्राच्य दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार किया, अथवा यों कहो कि इसका प्रतिपादन किया कि मन तथा इच्छा देश, काल एवं निमित्त के अन्तर्गत ठीक उसी प्रकार है, जैसे तथाकथित जड़ पदार्थ हैं । अतएव, वे कारणता की नियम में आबद्ध है । हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं, जो कुछ है, उन सबका अस्तित्व देश और काल में है । सब कुछ कारणता के नियम से आबद्ध है । इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु है । अन्तर केवल स्पंदन की मात्रा में है । अत्यल्प गति से स्पंदनशील मन को जड़ पदार्थ के रूप में जाना जाता है । जड़ पदार्थ में जब स्पंदन की मात्रा का क्रम अधिक होता है, तो उसे मन के रूप में जाना जाता है । दोनों एक ही वस्तु है, और इसलिए अब जड़ पदार्थ देश, काल तथा निमित्त के बंधन में है, तब मन भी जो उच्च स्पंदनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है ।

प्रकृति एकरस है । विविधता अभिव्यक्‍ति में है । ‘नेचर’ के लिए संस्कृत शब्द है प्रकृति, जिसका व्युत्पत्त्यात्मक अर्थ है विभेद । सब कुछ एक ही तत्व है, लेकिन वह विविध रूपों में अभिव्यक्‍त हुआ है । मन जड़ पदार्थ बन जाता है और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है । यह केवल स्पंदन की बात है । इसपात का एक छड़ लो और उसे इतनी पर्याप्त शक्‍ति से आघात करो, जिससे उसमें कम्पन आरम्भ हो जाय । तब क्या घटित होगा? यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाय तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनि, भनभनाहट की ध्वनि । शक्‍ति की मात्रा बढ़ा दो, तो इसपात का छड़ प्रकाशमान हो उठेगा तथा उसे और अधिक बढ़ाओ, तो इसपात बिल्कुल लुप्त हो जायेगा । वह मन बन जायेगा । एक अन्य दृष्टान्त लो- यदि मैं दस दिनों तक निराहार रहूँ, तो मैं सोच न सकूँगा । मन में भूले-भटके, इने-गिने विचार आ जायेंगे । मैं बहुत अशक्‍त हो जाऊँगा और शायद अपना नाम भी न जान सकूँगा । तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ, तो कुछ ही क्षणों में सोचने लगूँगा । मेरी मन की शक्‍ति लौट आयेगी । रोटी मन बन गयी । इसी प्रकार मन अपने स्पंदन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को अभिव्यक्‍त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है ।

इनमें पहले कौन हुआ- जड़ वस्तु या मन, इसे मैं सोदाहरण बताता हूँ । एक मुरगी अंडा देती । अंडे से एक और मुरगी पैदा होती है और फिर इस क्रम की अनन्‍त श्रृंखला बन जाती है । अब प्रश्‍न उठता है कि पहले कौन हुआ, अंडा या मुरगी? तुम किसी ऐसे अंडे की कल्पना नहीं कर सकते, जिसे किसी मुरगी ने न दिया हो और न किसी मुरगी की कल्पना कर सकते हो, जो अंडे से न पैदा हुई हो । कौन पहले हुआ, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । करीब करीब हमारे सभी विचार मुरगी और अंडे के गोरखधंधे जैसे हैं । अत्यन्त सरल होने के कारण महान्‌ से महान्‌ सत्य विस्मृत हो गये । महान्‌ सत्य इसलिए सरल होते हैं कि उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता होती है । सत्य स्वयं सदैव सरल होता है । जटिलता मनुष्य के अज्ञान से उत्पन्‍न होती है ।

मनुष्य में स्वतन्त्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो आबद्ध है । वहाँ स्वतन्त्रता नहीं है । मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है । आत्मा नित्य मुक्‍त, असीम और शाश्‍वत है । मनुष्य की मुक्‍ति इसी आत्मा में है । आत्मा नित्य मुक्‍त है, किन्तु मन अपनी ही क्षणिक तंरगों से तद्रूपता स्थापित कर आत्मा को अपने से ओझल कर देता है और देश, काल तथा निमित्त की भूलभुलैया -माया में खो जाता है । हमारे बंधन का कारण यही है । हम लोग सदा मन से तथा मन के क्रियात्मक परिवर्तनों से अपना तादात्म्य कर लेते हैं । मनुष्य का स्वतन्त्र आत्मा में प्रतिष्ठित है और मन के बंधन के बावजूद आत्मा अपनी मुक्‍ति को समझते हुए बराबर इस तथ्य पर बल देती रहती है, ‘मैं मुक्‍त हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ !’ यह हमारी मुक्‍ति है । आत्मा-नित्य मुक्‍त, असीम और शाश्‍वत- युग युग से अपने उपकरण मन के माध्यम से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्‍त करती आयी है । तब प्रकृति से मानव का क्या सम्बन्ध है/ निकृष्टतम प्राणियों से लेकर मनुष्यपर्यन्त आत्मा प्रकृति के माध्यम से अपने को अभिव्यक्‍त करती है व्यक्‍त जीवन के निकृष्टतम रूप में भी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्‍ति अंतर्भूत है और विकास कही जानेवाली प्रक्रिया के माध्यम से वह बाहर प्रकट होने का उद्योग कर रही है ।

विकास की सभी प्रक्रिया अपने को अभिव्यक्‍त करने के निमित्त आत्मा का संघर्ष है । प्रकृति के विरूद्ध यह निरंतर चलते रहनेवाला संघर्ष है । मनुष्य आज जैसा है, वह प्रकृति से अपनी तद्रूपता का नहीं, वरन्‌ उससे अपने संघर्ष का परिणाम है । हम यह बहुत सुनते हैं कि हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य करके और उससे समस्वरित होकर रहना चाहिए । यह भूल है । यह मेज, यह घड़ा, खनिज पदार्थ, वृक्ष सभी का प्रकृति से सामंजस्य है । पूरा सामजस्य है, कोई वैषम्य नहीं । प्रकृति से सामंजस्य का अर्थ है गतिरोध, मृत्यु । आदमी ने यह घर कैसे बनाया? प्रकृति से समन्वित होकर? नहीं । प्रकृति से लड़कर बनाया । मानवीय प्रगति प्रकृति के साथ सतत संघर्ष से निर्मित हुई है, उसके अनुसरण द्वारा नहीं ।

प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र जनप्रतिनिधि जनसेवक नहीं मालिक हैं

जब देश में स्वतंत्रतोपरान्त प्रजातंत्र की नींव रखी गई इस नींव में जनशक्‍ति को सर्वोपरि रखते हुए जनता का शासन, ‘जनता द्वारा, जनता के लिये’ के सिद्धान्त के आधार पर प्रजातंत्र प्रणाली शुरू तो की गई परन्तु जैसे-जैसे इस प्रणाली में स्वहित की भावना प्रबल होती गई, प्रजातंत्र की छाया इस तरह समाती चली गई जहां प्रजातंत्र के आधारस्तंभ जनसेवक के रूप में उभरे जनप्रतिनिधि देश के मालिक बन गये । इस बदलते रूप में धीरे-धीरे स्वार्थपूर्ण राजनीति सर्वोपरि हो चली । जहाँ न तो प्रजातंत्र रहा, न राजतंत्र । इन दोनों के बीच एक नया तंत्र उभर चला जिसे स्वलाभतंत्र कहना ज्यादा उचित माना जा सकता है । इस व्यवस्था में स्वहित को केन्द्र में रखकर सभी निर्णय लिये जाने लगे । केन्द्र की राजनीति हो या राज्य की, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधानपरिषद सभी जगह स्वहित की गूंज सुनाई देने लगी । इस परिवेश से यहां की पंचायती राज व्यवस्था भी अछूती नहीं रही । जनप्रतिनिधि जनसेवक न बनकर मालिक बन गये तथा स्वहित में निर्णय स्वयं ही लेने लगे । वेतन बढ़ोत्तरी की बात हो या सुविधायें संजोये जाने की चर्चा सभी पक्ष में इनके स्वर एकजुट हो चले । कहीं कोई विरोध नहीं आखिर विरोध करे भी तो कौन, सभी की बिरादरी एक ही तो है । सभी जनप्रतिनिधि हैं, जनता के सेवक हैं । पक्ष हो या विपक्ष, वेतन बढ़ोत्तरी, लाभ ढेर सारी सुविधायें संजोये जाने की लालसा आखिर किसे न भाये । इनके ऊपर तो कोई और है भी नहीं, जो ऐसा करने से इन्हें रोके । आदर्श तो पहले ही वानप्रस्थ की ओर चला गया जहां कभी इस देश के राष्ट्रपति वेतन के नाम पर मात्र १ रू. की राशि लिया करते थे । आज तो जनप्रतिनिधि लाखों-करोड़ों की गोद में बैठे हैं । स्वयं की मांग, स्वयं का समर्थन, न कोई रोक, न कोई टोक, न विरोध, न प्रदर्शन, पांचों अंगुली घी में, चांदी ही चांदी, फिर पूछना ही क्या । देश की सर्वोपरि जनता बेचारी मात्र मत के अधिकार तक ही सिमट कर रह गई है । चुनाव में किसी न किसी को तो मत देना ही है, न भी दे तो इस प्रजातंत्र रूपी लाभतंत्र में कौन किसका क्या बिगाड़ लेगा? मत दो तो ठीक, न दो तो ठीक । इस प्रजातांत्रिक प्रणाली में जो मत पड़ेगा वही निर्णायक होगा । पक्ष हो या विपक्ष, क्या फर्क पड़ता है? सभी एक जैसे ही तो हैं । आज नहीं तो कल, सत्‍ता किसी न किसी के पास तो होगी ही । लाभ संजोने के अधिकारी येन-केन-प्रकारेण सभी होंगे ।

वर्तमान में लाभ पद को लेकर देश भर में उठे विवाद से एक भूचाल आता दिखाई दिया और इसके समाधान में सभी एकजुट हो चले । स्वयं का संविधान, स्वयं पारित करना ! ऐसे हालात में लाभ पद से उभरे विवाद से बचने का हल आखिर सभी ने मिलकर ढूंढ ही तो लिया । संविधान का स्वरूप ही स्वहित में बदल डाला । अब बतायें, इस तरह की व्यवस्था को स्वलाभतंत्र न कहा जाय तो क्या कहा जाय । जहां प्रजातंत्र अप्रासंगिक बनता जा रहा हो । इस तंत्र में ये जनसेवक न होकर मालिक बन गये हैं । जो चाहे स्वहित में निर्णय ले सकते हैं । जितने पद चाहे अपने पास तालमेल बिठाकर रख सकते हैं, जिसे चाहे लाभ के पद पर बिठा सकते हैं । ये जो भी निर्णय लेते हैं, देशहित एवं जनहित से इनका कोई वास्ता नहीं । जब कोई खतरा इनके पास मंडराता है तो सभी एक स्वर से देश पर संकट आने की घोषणा करने लग जाते हैं । पर जब देश के अन्दर महंगाई बढ़ती रहे, रोजी-रोटी की समस्या को लेकर आम जनता चिल्लाती रहे, कान में तेल डालकर ये कुंभकरणी नींद के खर्राटे में गोते लगाते रहते हैं और जब जागते हैं तो धर्म, जाति, भाषा, आरक्षण की वोट राजनीति के पीछे एक दूसरे को लड़ाते रहते हैं । और जब इनसे भी इनका मकसद हल नहीं होता तो देश पर संकट का नाम लेकर सीमा युद्ध की मीमांसा में पूरे देश को उलझाकर जनता का ध्यान वास्तविक समस्या से दूर हटाने का अद्‌भुत प्रयास करते हैं । और इस तरह की कूटनीतिक चाल में प्रायः ये सफल भी हो जाते हैं ।

इस तरह के स्वहित से भरे अनेक कारनामे प्रजातंत्र के सजग, प्रहरी, जनता के सेवक कहे जाने वाले वर्तमान में जनप्रतिनिधियों के देखे जा सकते हैं । जिनके लिये राष्ट्रहित एवं जनहित की भावना स्वहित से कोसों पीछे छूट गई है । सरकारी तंत्रों की गिरती साख, घोटालों की भरमार, बढ़ती महंगाई, लूट-खसोट, आतंकवाद आदि-आदि स्वार्थपूर्ण राजनीति की ही तो देन है । संविधान में जो बातें इनके हित की हैं उसे नहीं बदले जाने की मीमांसा पर प्रायः सभी एकमत हैं । इसी कारण बिना जनप्रतिनिधि बने ही ये प्रजातंत्र के सर्वोच्च पद पर भी विराजमान हो जाते हैं । जितनी जगह ये चुनाव लड़ सकते हैं और जनप्रतिनिधि चुने जाने पर छोड़ सकते हैं । चाहे चुनाव का भार दुबारा या तिबारा देश की जनता पर ही भले ही क्यों न पड़े? सरकारी बंगला, हवाई-रेल यात्रा, टेलीफोन एक बार पा जाने पर जिंदगी भर उसका लुत्फ उठाने की आदत सी पड़ जाती है । देश का माल जितना चाहें विदेशी खातों में जमा करते रहें । बिस्तरों के नीचे छिपाते रहें और ताउम्र कब्र में पांव लटकने तक जनप्रतिनिधि बने रहने की लालसा मन में पाले रहें । पढ़े-लिखे हों या अनपढ़, जंगलों की खाक छानी हो या डाकू बनकर हत्यायें, लूट-पाट, आगजनी, देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त रहें हो, इनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता । ऐसे हालात में भी यहां ये जनप्रतिनिधि बनकर प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र की बागडोर थामने का भरपूर प्रयास करते हैं और अपने इस प्रयास में सफल भी हो जाते हैं । इस तरह के हालात में प्रजातंत्र का जो स्वरूप उजागर हो रहा है उसमें जनता के सेवक बनाम जनप्रतिनिधि का मालिकाना भाव स्वहित में उभरना स्वाभाविक है । जहां धन व यश बटोरना मुख्य ध्येय बन गया हो, तभी तो झोपड़ी से महल तक की इनकी यात्रा एवं इनके रूप में काफी बदलाव देखा जा सकता है । जहां इनके चेहरे पर कुटिल मुस्कान, मन में छल के ख्याली पुलाव सदा उभरते रहते हैं ।

वर्तमान हालात में जहां स्वहित की परिधि में घिरे प्रजातंत्र के जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च शक्‍ति निरंकुश रूप में विराजमान हो, इस तरह की व्यवस्था राष्ट्रहित एवं जनहित में कदापि नहीं हो सकती । यह तभी संभव है जब प्रजातंत्र में जनप्रतिनिधियों के ऊपर हर वर्ग को प्रतिनिधित्व करती हुई सर्वोच्च शक्‍तिमान समिति गठित हो । जो इनकी गतिविधियों पर नजर रखते हुए राष्ट्रहित में जनहित में निर्णय लेने में सक्षम हो । तभी प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र के स्वरूप में बदलाव लाया जा सकता है । परन्तु भारतीय संविधान में संभवतः इस तरह का कर पाना वर्तमान प्रणाली में कहीं दिखाई नहीं देता और इस तरह के संशोधन लाने की प्रक्रिया में प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र से जुड़े प्रतिनिधि अपनी सहमति व्यक्‍त कर सकें, दूर-दूर तक इसके आसार नहीं दिखाई देते । कौन अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी चलाना पसंद करेगा । रोज-रोज सोने की अंडा देने वाली मुर्गी को कौन हलाल करना चाहेगा? आदि-आदि । इस तरह के ज्वलंत अनेक प्रश्‍न निश्‍चित तौर पर प्रजातंत्र के वास्तविक स्वरूप को विद्वत करने में जुटे हैं जहां राष्ट्रहित व जनहित से स्वहित की भावना सर्वोपरि हो चली । जहां प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र की व्यवस्था में यह पंक्‍ति चरितार्थ हो चली है कि

‘देश की जनता ने/ बड़े शौक से/ हमारे सिर ताज रखा है/ हम देश के मालिक हैं/ जो चाहेंगे वही करेंगे/ न सुनेंगे न सुनने देंगे ।’