Thursday, September 23, 2010

टीआरपी के लिए सम्प्रदायों में द्वेष परोसा आईबीएन सेवन ने

कहते हैं मीडिया समाज में जागरूकता, ज्ञान, और संस्कृति आदि की प्रचारक होती है, लेकिन इसका उपयोग अगर सकारात्मक रूप से स्वार्थ से परे हटकर करा जाये तो । मीडिया में तो वह क्षमता है कि राक्षस को देवता, और देवता को राक्षस, पत्थर को देवता, रातों-रात किसी को महान या किसी को रातों-रात डिफेम कर दे । लेकिन क्षेत्र कोई भी हो जब कोई भी काम स्वार्थ से लिप्त गलत भावना से किया जाता है, मनुष्य बहुत दिन तक अपने अस्तित्व को ही नहीं साथ ही उस क्षेत्र को भी बदनाम करता है, जिसमें वह काम कर रहा है । १७ सितंबर २०१० को आईबीएन सेवन न्यूज चैनल में एक स्टिंग ऑपरेशन दिखाया गया कि किस तरह से बहुसंख्यक समुदाय के लोग अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को किराये में अपना मकान देने में हिचकिचाते हैं, या मना कर देते हैं ।
आखिर इस तरह का न्यूज दिखाकर के आम मानस में क्या साबित करना चाहते हैं । बस इन्हें तो टीआरपी मिल जायेगी, लेकिन आम जनता पर इसका क्या असर पड़ेगा? क्या इनका यह दायित्व नहीं बनता कि यह हमारा कार्य जिम्मेदाराना ढंग से करें । हमें समाज के दिलों को जोड़ना है ना कि तोड़ना । ऐसा नहीं है कि इस स्टिंग ऑपरेशन में दिखाया गया समाज का चेहरा असत्य था । लेकिन इसका एक पहलू था, किसी भी चीज में या किसी भी जगह हमें अच्छाई व बुराई दोनों मिलती है, लेकिन यहां पर तो बाकायदा नाटकीय ढंग से बुराई को समाज में से निचोड़ने की कोशिश की है । और उसे चैनल पर प्रसारित कर हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी सभ्यता को दूषित करने की कोशिश की गई है ।
कभी यह लोग इस तरह की खोज क्यों नहीं करते कि यहां समाज में दोनों समुदायों के बीच प्यार व भाईचारे की मिसाल मिलती है । और ऐसा दिखाकर ये देश व समाज के प्रति एक कर्तव्य का भी पालन कर सकते हैं । वो भी ऐसी स्थिति में जब देश में इन दोनों सम्प्रदायों के बीच में कहीं राजनीति, कहीं बाहरी देशों से चलाये गये आतंकवाद आदि हमेशा खटास पैदा करते हैं । जम्मू-कश्मीर की हालत किसी से छुपी हुयी नहीं है । अयोध्या का शान्त व पवित्र स्थान सिर्फ राजनीति के ही कारण दूषित पड़ा हुआ है । ऐसी स्थिति में जब अयोध्या का फैसला आने वाला है , देश आतंक के खतरों को झेल ही रहा है तो ऐसे में आईबीएन सेवन ने इस तरह की खबर देकर आग में घी डालने का काम करा है ।
भारत के गंगा-जमुनी सभ्यता में हिंदू-मुस्लिम करीब १ हजार साल से भी ज्यादा समय से साथ रह रहे हैं, और अगर उनमें एकता व भाईचारा नहीं होता तो इतना लम्बा समय एकसाथ बिता पाना असंभव सी बात है । यह बात अलग है, कि जहां परिवार में एक साथ बैठते हैं तो छोटी-बड़ी शिकायतें होती हैं । जिसका बाहरी कुछ स्वार्थी लोग फायदा उठाकर बरगलाते हैं, और अपने स्वार्थ हेतु माहौल को गंदा करते हैं । जबकि हमारे देश में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की एकता की मिसालें अनगिनत हैं और आये दिन ये अनगिनत मिसालें देखने को मिलती हैं ।
अभी हाल ही में १४ सितंबर को बरनाहल थाना क्षेत्र कटरा मोहल्ले कि एक महिला की बकरी ने शीतला माँ के मन्दिर में घुसकर उनकी मूर्ति क्ष्रतिग्रस्त कर दी, जिसके बाद मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों ने अपने हिंदू भाईयों के लिए एक अनूठी पहल करते हुये, चंदा एकत्रित कर नयी मूर्ति की स्थापना कराई तथा एक जिम्मेदाराना भाईचारे का परिचय दिया ।
इसी तरह से अजमेर में सूफी संत ‘गरीब नवाज’ मोइनुद्दीन चिश्ती का सालाना उर्स हिन्दू-मुस्लिम की जीती-जागती मिसाल पेश करता है, यहां पर पूरी श्रद्धा के साथ देश-विदेश, से कई मजहबों के लोग आते हैं, और ख़्वाज़ा से अपनी दुआ कबूल कराते हैं ।
जम्मू-कश्मीर ने लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम भाई-चारे की अनूठी मिसाल कायम की कि यहां के मुट्‌ठी इलाके के हिंदुओं ने मिलकर कश्मीर के एक मुस्लिम युवक को दफनाने की सारी रस्में अदा कीं आर्थिक तंगी से जूझ रहे आसियां के परिवार का साथ देने के लिए यहां के हिन्दू परिवार के लोग आगे आये । तथा उनकी मदद की ।
इसी तरह उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के नौबतपुर गांव का संकटमोचन मंदिर जो १५० साल पुराना है, जो हिंदू-मुस्लिम एकता का और भाईचारे का मिसाल बना हुआ है । इस मंदिर में रमज़ान के महीने में मुसलमान रोजा खोलने से पहले की नमाज़ मंदिर में अदा करते हैं और रोज़ा हिंदुओं द्वारा बताए गए विभिन्‍न प्रकार के व्यंजनों से खोलते हैं ।

Wednesday, September 22, 2010

हिन्दी का अस्तित्व


हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी 14 तारीख को हिंदी दिवस कुछ हिंदी प्रेमियों के द्वारा याद तो रखा जायेगा । लेकिन दिन प्रतिदिन अंग्रेजी का आकर्षण हिंदी को कहीं ना कहीं से दबाता या तोड़ता-मोड़ता जा रहा है । इसके पीछे बहुत बड़ा कारण यह है कि हिंदी भाषी सदियों से हीनता के शिकार होते चले जा रहे हैं, आज हमारे देश में पुरानी बहुत सारी विद्यायें विलुप्त हो चुकी हैं अगर उसका कुछ अंश मिलता है तो सीधे-साधे शब्दों में समझ में नहीं आता । क्योंकि किसी भी संस्कृति, विद्या एक युग से दूसरे युग तक भाषा पहुंचाने या संवहन का कार्य करती है ।

और हमारे देश में कई सौ साल गुलाम रहने के बाद अलग-अलग भाषाओं और संस्कृति से प्रभावित होने के कारण खुद की भाषा से, खुद की पहचान से कमजोर होता चला गया । और हिंदी भाषियों को हीनता का शिकार बनाता चला गया । जिसके कारण हिंदी दिन-प्रतिदिन एक युग से नये युग तक अपना प्रभाव कमजोर करती जा रही है । हम हिंदी भाषियों के दिमाग में हीनता इस कदर बढ़ गयी है कि हम अपनी चीजों की कमजोरी या अपरिपक्व समझते हैं और हम हीनता के शिकार हिंदी भाषी हिंदी को और हीन करते जा रहे हैं । नये युग में हिंदी का सम्मोहन तभी होगा जब हम हिंदी के साथ अपने को गर्वित महसूस कर सकते हैं । जैसे हिंदी दिन-प्रतिदिन हीन हो रही है, वैसे-वैसे अपनी संस्कृति, सभ्यता या हम भी हीन होते जा रहे हैं ।

हिंदी सिर्फ हमारी भाषा ही नहीं अपितु हमारी पहचान है, और जिसे खोकर हम अपनी पहचान खो रहे हैं । पिछले वर्ष समय दर्पण के सिंतबर अंक में हमने लिखा था- कि जहां हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, जो पितातुल्य हमें हमारी संस्कृति को संजोता, संवारता और विश्‍व में हमारी पहचान कराता है । अलबत्ता अन्य क्षेत्र की भाषाएं अलग-अलग क्षेत्र के भारतीय लोगों के लिए मात्र भाषा हैं, लेकिन विश्‍व में पहचान या अस्तित्व का निर्माण राष्ट्र भाषा से ही होता है । हम हिंदी को ना अपनाकर अपनी हीनता को प्रदर्शित करते हैं, यह ठीक वैसे ही है, जैसे कोई नये जमाने का लड़का किसी बड़े लोगों के समाज में जाता है, और अपनी गरीबी छुपाने के लिए किसी दूसरे की कपड़ों को पहनकर अपने को दूसरे समाज का प्रदर्शित करता है । लेकिन उस समाज में गरीब, लाचार फटे कपड़े पहने पिता वेटर के रूप में दिखाई देता है, तो बेटा उस स्थिति में अपने दोस्त, समाज या नये समाज में अपने पिता को पहचानने से ही इंकार कर देता है । आज हम हिंदी के साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार कर रहे हैं । पर इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि हम अपनी पहचान छुपाकर अंग्रेजीयत का मुखौटा पहनकर कब तक इस झूठे अस्तित्व को जिंदा रख पायेंगे । आईये हम सब मिलकर इस हिंदी दिवस में हिंदी के विकास, फैलाव और उसे गर्व से अपनाने की प्रतिज्ञा लेते हैं ।

Wednesday, August 25, 2010

स्वाधीनता का अभिप्राय है, “खुद के कर्तव्यों की अधीनता”

15 अगस्त 2010 को हमलोग आजाद भारत का 63वां वर्ष पूर्ण कर 64 वें वर्ष में प्रवेश कर जाएंगे । हर साल यह पावन दिन भारतवासियों के लिए स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाता है । स्वाधीनता का अभिप्राय है- स्व-अधीनता अर्थात खुद की अधीनता । खुद की अधीनता का भी दो तरह का मतलब निकलता है- एक वह जो मन के अधीन होकर कार्य करते हैं किन्तु इसे स्वाधीनता के अर्थ में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि मन तो चंचल है और मन में कोई अधीनता नहीं होती । लेकिन जब लोग अपने कर्त्तव्यों व अहसासों का एहसास करते हुये स्वा अधीनता महसूस करते हैं वही सही मायने में स्वाधीनता है ।

परन्तु आजादी का यह दिन कहीं ना कहीं मूलभूत रूप से आज के युवाओं में अपना असर या अपना अभिप्राय तनिक भी नहीं छोड़ पा रहा है । सिर्फ औपचारिकता वश आजादी का यह दिन मौज-मस्ती व छुट्‌टी का दिन बनकर रह गया है इतना ही नहीं इन्हें तो इस बात का अभी एहसास नहीं है कि यह आजादी कितने बलिदानों के बाद मिली है । युवाओं को क्या कहें अधिकांशतः देशवासियों के मन में भी आजाद भारत से अभिप्राय यही है कि वे आजाद और उन्मुक्‍त हैं, और अपनी मनमानी कर सकते हैं, परन्तु आजादी दिलाने वाले सैलानियों ने यह सोचकर आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी । आज के देशवासियों को यह जरूर समझना चाहिए कि हम स्वाधीन भारतीय खुद के अधीन हैं, जहां से खुद की जिम्मेदारियों, कर्त्तव्यों, देश के प्रति हमारी जिम्मेदारियों के निर्वहन की अधीनता की शुरू होती है । यह अधीनता १५ अगस्त सन्‌ १९४७ से ही शुरू हो गयी थी, लेकिन पराधीनता सिर्फ दूसरों के आदर्शों का पालन करना ही होता है, लेकिन स्वाधीनता खुद के दायित्वों का बोझ रखते हुये उसे मूलरूप देने के लिए राष्ट्रों का निर्माण करना तथा अपने सभी दायित्वों के प्रति सजग रहना आदि है

पर आजादी के बाद आजादी की खुशी में स्वाधीनता के मूलभूत बातों को हम देशवासी अपने जहन में नहीं बिठा सकते । और यही कारण है कि हम उन्मुक्‍त होकर अपनी मनोभूति रूपी इच्छाओं की पूर्ति हेतु आजादी की पूर्ति करते हैं । दिन पर दिन हम देशवासी अपने कर्त्तव्यों और देश के प्रति अपने दायित्वों, अपनी संस्कृति व निष्ठा से दूर तो होते ही जा रहे है, साथ ही साथ अपनी संस्कृति की वाहक मातृभाषा हिन्दी से भी दूर होते जा रहे हैं । जब तक हम स्वाधीनता का मूलभूत अर्थ अपने जहन में नहीं बिठा लेते तब तक दुनिया में हम अपनी सभ्यता, संस्कृति का परचम नहीं लहरा सकते । और ना ही हम अपनी पहचान बना सकते हैं, और ऐसा अगर हम नहीं कर सकते तो उन सभी स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान जिनके प्राणों की आहुति पर हमें स्वतंत्रता मिली है, उसे हम निरर्थक साबित कर देंगे । और जहां कहीं से भी अगर उनकी अंतरात्मा इस भारत को देख रही है तो भारत की इन स्थितियों को देखकर दुःखी ही होगी । अंत में अपनी इन बातों के साथ ज्योति प्रकाश की मार्मिक कविता प्रस्तुत करना चाहूंगा-

स्वाधीनता का अर्थ है, स्व की अधीनता
परमार्थ प्राप्त कराना न कि दीनता
शहीद अब तो हो ग‌ए गुमनाम हम वतन
अब जश्न की चिंता है श्रद्धांजलि की कम
जिस अंग्रेजियत के लिये बलिदान कर दिया
उसी ने दिलो-दिमाग पर अधिकार कर लिया
संस्कृति अब हो गयी निर्वस्त्र साथियों
हिंदी है अब दम तोड़ती घुटन कातिलों
1947 में जब स्वाधीनता मिली
कुछ वक्‍त ही ये स्वाधीनता रही
चंद कदम बाद आजादी बन गया
अब 15 aug. जस्न-ए-बर्बादी बन गया

मंद पवन को आँधी ना कहो
स्वाधीनता को जस्ने आजादी ना कहो
भाव को समझो वरना अनर्थ ही होगा
स्वाधीनता दिवस मनाना व्यर्थ ही होगा
बेशक तुम अंग्रेजी, चाईनीज, फारसी पढ़ो,
ज्ञान को बढाओ ना कि उसको सीमित करो
पर अपनी सभ्यता, संस्कृति का गला मत घोंटो
प्राणहीन हो रही हिन्दी प्रिये! इसका कत्ल रोको
लो प्रण आज स्वयम्‌ को अपने अधीन कर लो
मन, कर्म, वचन पर जीत कर लो
अधिकार मत छीनो किसी का गला मत घोंटो

जीने दो सबको मनुष्य ! प्राण वायु न रोको
रोग, गरीबी, व भ्रष्टाचार को रोको
बच्चों, औरतों पर हो रहे अत्याचार को रोको
विवशता मनुष्यता विकास, एकता की बात को सोचो
मजदूर, किसान मर रहे हैं इनके आँसू तो पोंछो
जश्न-ए-आजादी मना रहे हो पहलवान
ये जन्मदिन नहीं तुम्हारा, है देश का त्यौहार
तुम्हें क्या कमी है तुम तो ता उम्र हो आज़ाद
पर इस दिन तो कर दो किसी के लिये दो अश्रु का बलिदान

- ज्योति प्रकाश सिंह

Saturday, July 24, 2010

गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन कांग्रेसी राजनीति की दोहरी चाल


आजमगढ़ में दिग्विजय सिंह की यात्रा और उसके बाद गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन कांग्रेसी राजनीति की दोहरी चाल को दर्शाती है । पहले तो कांग्रेस डेढ़ साल बाद सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का नया मुखौटा लगाकर आजमगढ़ गयी और उसके बाद मुसलमानों से यह प्रमाण पत्र ली कि वह आजमगढ़ के पीड़ित उन परिवारों से मिली है। इस प्रमाण को लेकर अब उसे वोट की राजनीति में तब्दील करने के प्रयास में है। गोरखपुर समेत तरा‌ई वाले पूरे क्षेत्र में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ पर क‌ई सांप्रदायिक दंगों और हमलों के आरोप हैं। उत्तर प्रदेश की अपराधियों और माफिया‌ओं की सूची में भी योगी पहले स्थान पर हैं। ऐसे में कांग्रेस बिना आजमगढ़ ग‌ए अगर गोरखपुर सम्मेलन करती तो उस पर सवाल जरुर उठता कि कांग्रेस ने ही आतंकवाद के नाम पर बाटला हा‌उस में मासूमों को मरवाया और दर्जनों पर आतंकी होने का आरोप लगा अब किस मुंह से गोरखपुर में सम्मेलन कर रही है। दूसरा कांग्रेस यह जानती थी कि वह अगर आजमगढ़ जा‌एगी तो भाजपा जरुर उसका विरोध करेगी और भावनात्मक आधार पर वो मुसलमानों में यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि कांग्रेस मुस्लिम हितैषी है और जिसका प्रमाण होगा भाजपा विरोध जिसको कांग्रेस को कहने की को‌ई जरुरत नहीं होगी और हु‌आ भी ऐसा।

इसीलि‌ए कांग्रेस आगे आजमगढ़ फिर गोरखपुर गयी। इसका फायदा कांग्रेस को जरुर मिलेगा क्योंकि योगी के आतंक से पूरा क्षेत्र आतंकित है चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान। अब यहां के लोगों में एक न‌ए ढर्रे की राजनैतिक आकांक्षा है और इसे कांग्रेसी बखूबी समझ रहे हैं। इस राजनैतिक आकांक्षा का अंदाजा डा0 अयूब की पीस पार्टी और ओलमा का‌उंसिल से आसानी से लगाया जा सकता है। कुछ समय पहले तक कांग्रेस के एजेंडे में था कि ऐसे दलों को समाहित कर लिया जाय। इसके लि‌ए उसने राजभर जाति के नेता के तौर पर् उभरे ओम प्रकाश राजभर से भी बीते कुछ वर्षों में साठ-गांठ करने की कोशिश की पर मामला बन नहीं पाया। पिछली 27 जनवरी को पीस पार्टी के डा0 अयूब, भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर और रामविलास पासवान ने जो खलीबाद में ‘गुलामी तोड़ो समाज जोड़ो’ के नारे के साथ नया गठजोड़ बनाया उससे कांग्रेस सकते में आ गयी। क्योंकि तरा‌ई के क्षेत्र में कांग्रेस को मिली सफलता का एक बड़ा कारण था पीस पार्टी का चुनाव में उतरना। केंद्र में भाजपा का को‌ई खतरा नहीं था। ऐसे में मुसलमान नया प्रयोग करना चाह रहा था। लेकिन प्रयोग में फायदा कांग्रेस को हु‌आ। पीस पार्टी ने सामाजिक न्याय के झंडा बरदारों वो चाहे सपा हो या फिर बसपा का ही वोट पाया। ऐसे में कांग्रेस को मजबूती मिली उसके उदार हिंदू और उदार मुस्लिम वोटरों या कहें कि ऐसा तबका जो योगी से त्रस्त था और दूसरे विकल्प के रुप में पीस पार्टी को नहीं देख रहा था उसने कांग्रेस की झोली में अपना मत दिया और यह रुझान अब भी कायम है। लेकिन ओलमा का‌उंसिल भी अपने को इस क्षेत्र में स्थापित करने की कोशिश में है। कांग्रेसी लगातार यह प्रचारित करने की कोशिश में लगे हैं कि बाटला हा‌उस के नाम पर ओलमा का‌उंसिल सियासत कर रही है, तो वहीं ओलमा का‌उंसिल अपने को एक राजनैतिक दल के रुप में स्थापित करने की कोशिश में लगी है।

आजमगढ़ियों में इस यात्रा ने एक मजबूत गांठ बना दी है कि अब को‌ई जांच नहीं होने वाली है। कांग्रेस ने यह सब एका‌एक नहीं किया। इसकी तैयारी उसने लोकसभा चुनावों के पहले ही शुरु कर दी थी पर गोटी नहीं फिट हुयी। बाटला हा‌उस के बाद आजमगढ़ में बने ओलमा का‌उंसिल से उसने बात की पर ओलमा का‌उंसिल ने साफ कहा कि दिग्विजय सिंह जो बाटला हा‌उस को बंद कमरे में फर्जी मानते हैं इसे खुले तौर पर आगे कहें। पर इतनी हिम्मत न दिग्विजय में हुयी न उनके युवराज या और न उनके किसी आका में। पर चाहे जो हो इस यात्रा का आजमगढ़ के कांग्रेसी वोटों के समीकरण पर को‌ई प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है क्योंकि वहां न उनके पास नेता है न ऐसे समीकरण जिनके बूते वे कुछ कर पा‌एं। जो कांग्रेसियों ने आतंकवाद के नाम पर किया उसका फायदा भाजपा-योगी जैसे लोगों ने सांप्रदायिकता भड़काने में किया। दूसरा मुसलमानों की हितैषी सपा का चेहरा भी बेनकाब हु‌आ। ऐसा नहीं है कि सपा इन घटना‌ओं के बाद सवालों को नहीं उठायी थी । सपा ने अबू बसर और बाटला हा‌उस के बाद दो विशाल जनसभा‌एं कीं। पर सपा का हिंदू वोटर या कहें कि यादव इसे आसानी से नहीं पचा पाया और जिसमें आजमगढ़ के रमाकांत यादव का व्यक्तिगत प्रभाव भी आड़े में आया। ऐसे में टूटते एमवा‌ई समीकरण में मुसलमानों की ओलमा का‌उंसिल उस समय स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी। बाद में उसके राजनीतिक होने पर थोड़ा उसका पावर बैलेंस कम हु‌आ लेकिन आजमगढ़ का मुस्लिम युवा यह जानता है कि उस पर अगर को‌ई ज्यादती होगी तो ओलमा का‌उंसिल ही सामने आ‌एगी। और यह कोरी लफ्फाजी नहीं है इसे ओलमा का‌उंसिल को मिले वाटों में आसानी से देखा जा सकता है। अब एक न‌ए समीकरण की जुगत में अमर सिंह लगे हैं लेकिन अभी उनका मूल्यांकन करना जल्दीबाजी होगा।

दिग्विजय सिंह ने अमरेश मिश्रा के माध्यम से आजमगढ़ में घुसने का प्रयत्न किया। और अमरेश को सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का गठन कर प्रभारी बनाया। कांग्रेसी न्याय के समीकरण के चलते उसी दिन खबरों में रहा कि शिवानी भटनागर हत्या कांड के आरोपी आरके शर्मा को जमानत मिली जो अमरेश के ससुर हैं। अमरेश वामपंथ से होते हु‌ए 1857 पर किताब लिख, सांप्रदायिक दंगों और बाबरी विध्वंस के आरोपी लाल कृष्ण आडवाणी से उसका विमोचन करवाया। और इसके बाद यूडी‌एफ होते हु‌ए ओलमा का‌उंसिल का सफर तय किया। अमरेश ने बाटला हा‌उस पर सवाल उठा‌ए थे ऐसे में कांग्रेस के लि‌ए अमरेश काफी महत्वपूर्ण थे जो आजमगढ़ में उन्हें ले जा सकते थे। पर कांग्रेस यह भी अच्छी तरह भाप रही है कि अमरेश उसे वोटों की गणित में पार नहीं लगा सकते क्यों की वो खुद तीन हजार वोट पाकर पिछले चुनावों में अपनी जमानत जब्त करवा चुके थे। अमरेश का प्रयोग कांग्रेस मुसलमानों को भावनात्मक रुप से रिझाने के लि‌ए कर रही है कि आपके सवालों को उठाने वाला हमसे ही न्याय की उम्मीद करता है तो फिर आप भी हमसे ही न्याय की उम्मीद करें। सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा की बैशाखी पर बैठ दिग्विजय भले आजमगढ़ पहुंच ग‌ए लेकिन आजमगढ़ में अब भी ओलमा का‌उंसिल की धमक कम नहीं हुयी। इसे दिग्विजय सिंह ने विरोध के दौरान समझा भी होगा। ओलमा का‌उंसिल का क्या भविष्य है इस पर अभी कयास लगाना जल्दी होगा लेकिन आजमगढ़ के युवा‌ओं में उसका क्रेज अभी कायम है।

प्रकृति और मानव


आजकल के लोगों की धारणा है कि प्रकृति के अन्तर्गत जगत्‌ का केवल वही भाग आता है, जो भौतिक स्तर पर अभिव्यक्‍त है । साधारणतः जिसे मन समझा जाता है, उसे प्रकृति के अन्तर्गत नहीं मानते । इच्छा की स्वतन्त्रता सिद्ध करने के प्रयास में दार्शनिकों ने मन को प्रकृति से बाहर माना है । क्योंकि जब प्रकृति कठोर और दृढ़ नियम से बँधी और शासित है तब मन को यदि प्रकृति के अन्तर्गत माना जाय, तो वह भी नियमों में बँधा होना चाहिए । इस प्रकार के दावे से इच्छा की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि जो नियम में बँधा है, वह स्वतन्त्र कैसे हो सकता है? भारतीय दार्शनिकों का मत इसके विपरीत है । उनका मत है कि सभी भौतिक जीवन, चाहे वह व्यक्‍त हो अथवा अव्यक्‍त, नियम से आबद्ध है । उनका दावा है कि मन तथा बाह्य प्रकृति दोनों नियम से, एक तथा समान नियम से आबद्ध हैं । यदि मन नियम के बंधन में नहीं है, हम जो विचार करते हैं, वे यदि पूर्व विचारों के परिणाम नहीं हैं, यदि एक मानसिक अवस्था दूसरी पूर्वावस्था के परिणामस्वरूप उसके बाद ही नहीं आती, तब मन तर्कशून्य होगा, और तब कौन कह सकेगा कि इच्छा स्वतन्त्र है और साथ ही तर्क या बुद्धिसंगतता के व्यापार को अस्वीकार करेगा? और दूसरी ओर, कौन मान सकता है कि मन कारणता के नियम से शासित होता है और साथ ही दावा कर सकता है कि इच्छा स्वतन्त्र है?

नियम स्वयं कार्य-करण का व्यापार है । कुछ पूर्व घटित कार्यों के अनुसार कुछ परवर्ती कार्य होते हैं । प्रत्येक पूर्ववर्ती का पना अनुवर्ती होता है । प्रकृति में ऐसा ही होता है । यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन आबद्ध है और इसलिए वह स्वतन्त्र नहीं है । नहीं, इच्छा स्वतन्त्र नहीं है । हो भी कैसे सकती है? किन्तु हम सभी जानते हैं, हम सभी अनुभव करते हैं कि हम स्वतन्त्र हैं । यदि हम मुक्‍त न हों, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा और न वह जीने लायक ही होगा । प्राच्य दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार किया, अथवा यों कहो कि इसका प्रतिपादन किया कि मन तथा इच्छा देश, काल एवं निमित्त के अन्तर्गत ठीक उसी प्रकार है, जैसे तथाकथित जड़ पदार्थ हैं । अतएव, वे कारणता की नियम में आबद्ध है । हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं, जो कुछ है, उन सबका अस्तित्व देश और काल में है । सब कुछ कारणता के नियम से आबद्ध है । इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु है । अन्तर केवल स्पंदन की मात्रा में है । अत्यल्प गति से स्पंदनशील मन को जड़ पदार्थ के रूप में जाना जाता है । जड़ पदार्थ में जब स्पंदन की मात्रा का क्रम अधिक होता है, तो उसे मन के रूप में जाना जाता है । दोनों एक ही वस्तु है, और इसलिए अब जड़ पदार्थ देश, काल तथा निमित्त के बंधन में है, तब मन भी जो उच्च स्पंदनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है ।

प्रकृति एकरस है । विविधता अभिव्यक्‍ति में है । ‘नेचर’ के लिए संस्कृत शब्द है प्रकृति, जिसका व्युत्पत्त्यात्मक अर्थ है विभेद । सब कुछ एक ही तत्व है, लेकिन वह विविध रूपों में अभिव्यक्‍त हुआ है । मन जड़ पदार्थ बन जाता है और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है । यह केवल स्पंदन की बात है । इसपात का एक छड़ लो और उसे इतनी पर्याप्त शक्‍ति से आघात करो, जिससे उसमें कम्पन आरम्भ हो जाय । तब क्या घटित होगा? यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाय तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनि, भनभनाहट की ध्वनि । शक्‍ति की मात्रा बढ़ा दो, तो इसपात का छड़ प्रकाशमान हो उठेगा तथा उसे और अधिक बढ़ाओ, तो इसपात बिल्कुल लुप्त हो जायेगा । वह मन बन जायेगा । एक अन्य दृष्टान्त लो- यदि मैं दस दिनों तक निराहार रहूँ, तो मैं सोच न सकूँगा । मन में भूले-भटके, इने-गिने विचार आ जायेंगे । मैं बहुत अशक्‍त हो जाऊँगा और शायद अपना नाम भी न जान सकूँगा । तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ, तो कुछ ही क्षणों में सोचने लगूँगा । मेरी मन की शक्‍ति लौट आयेगी । रोटी मन बन गयी । इसी प्रकार मन अपने स्पंदन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को अभिव्यक्‍त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है ।

इनमें पहले कौन हुआ- जड़ वस्तु या मन, इसे मैं सोदाहरण बताता हूँ । एक मुरगी अंडा देती । अंडे से एक और मुरगी पैदा होती है और फिर इस क्रम की अनन्‍त श्रृंखला बन जाती है । अब प्रश्‍न उठता है कि पहले कौन हुआ, अंडा या मुरगी? तुम किसी ऐसे अंडे की कल्पना नहीं कर सकते, जिसे किसी मुरगी ने न दिया हो और न किसी मुरगी की कल्पना कर सकते हो, जो अंडे से न पैदा हुई हो । कौन पहले हुआ, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । करीब करीब हमारे सभी विचार मुरगी और अंडे के गोरखधंधे जैसे हैं । अत्यन्त सरल होने के कारण महान्‌ से महान्‌ सत्य विस्मृत हो गये । महान्‌ सत्य इसलिए सरल होते हैं कि उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता होती है । सत्य स्वयं सदैव सरल होता है । जटिलता मनुष्य के अज्ञान से उत्पन्‍न होती है ।

मनुष्य में स्वतन्त्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो आबद्ध है । वहाँ स्वतन्त्रता नहीं है । मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है । आत्मा नित्य मुक्‍त, असीम और शाश्‍वत है । मनुष्य की मुक्‍ति इसी आत्मा में है । आत्मा नित्य मुक्‍त है, किन्तु मन अपनी ही क्षणिक तंरगों से तद्रूपता स्थापित कर आत्मा को अपने से ओझल कर देता है और देश, काल तथा निमित्त की भूलभुलैया -माया में खो जाता है । हमारे बंधन का कारण यही है । हम लोग सदा मन से तथा मन के क्रियात्मक परिवर्तनों से अपना तादात्म्य कर लेते हैं । मनुष्य का स्वतन्त्र आत्मा में प्रतिष्ठित है और मन के बंधन के बावजूद आत्मा अपनी मुक्‍ति को समझते हुए बराबर इस तथ्य पर बल देती रहती है, ‘मैं मुक्‍त हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ !’ यह हमारी मुक्‍ति है । आत्मा-नित्य मुक्‍त, असीम और शाश्‍वत- युग युग से अपने उपकरण मन के माध्यम से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्‍त करती आयी है । तब प्रकृति से मानव का क्या सम्बन्ध है/ निकृष्टतम प्राणियों से लेकर मनुष्यपर्यन्त आत्मा प्रकृति के माध्यम से अपने को अभिव्यक्‍त करती है व्यक्‍त जीवन के निकृष्टतम रूप में भी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्‍ति अंतर्भूत है और विकास कही जानेवाली प्रक्रिया के माध्यम से वह बाहर प्रकट होने का उद्योग कर रही है ।

विकास की सभी प्रक्रिया अपने को अभिव्यक्‍त करने के निमित्त आत्मा का संघर्ष है । प्रकृति के विरूद्ध यह निरंतर चलते रहनेवाला संघर्ष है । मनुष्य आज जैसा है, वह प्रकृति से अपनी तद्रूपता का नहीं, वरन्‌ उससे अपने संघर्ष का परिणाम है । हम यह बहुत सुनते हैं कि हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य करके और उससे समस्वरित होकर रहना चाहिए । यह भूल है । यह मेज, यह घड़ा, खनिज पदार्थ, वृक्ष सभी का प्रकृति से सामंजस्य है । पूरा सामजस्य है, कोई वैषम्य नहीं । प्रकृति से सामंजस्य का अर्थ है गतिरोध, मृत्यु । आदमी ने यह घर कैसे बनाया? प्रकृति से समन्वित होकर? नहीं । प्रकृति से लड़कर बनाया । मानवीय प्रगति प्रकृति के साथ सतत संघर्ष से निर्मित हुई है, उसके अनुसरण द्वारा नहीं ।

प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र जनप्रतिनिधि जनसेवक नहीं मालिक हैं

जब देश में स्वतंत्रतोपरान्त प्रजातंत्र की नींव रखी गई इस नींव में जनशक्‍ति को सर्वोपरि रखते हुए जनता का शासन, ‘जनता द्वारा, जनता के लिये’ के सिद्धान्त के आधार पर प्रजातंत्र प्रणाली शुरू तो की गई परन्तु जैसे-जैसे इस प्रणाली में स्वहित की भावना प्रबल होती गई, प्रजातंत्र की छाया इस तरह समाती चली गई जहां प्रजातंत्र के आधारस्तंभ जनसेवक के रूप में उभरे जनप्रतिनिधि देश के मालिक बन गये । इस बदलते रूप में धीरे-धीरे स्वार्थपूर्ण राजनीति सर्वोपरि हो चली । जहाँ न तो प्रजातंत्र रहा, न राजतंत्र । इन दोनों के बीच एक नया तंत्र उभर चला जिसे स्वलाभतंत्र कहना ज्यादा उचित माना जा सकता है । इस व्यवस्था में स्वहित को केन्द्र में रखकर सभी निर्णय लिये जाने लगे । केन्द्र की राजनीति हो या राज्य की, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधानपरिषद सभी जगह स्वहित की गूंज सुनाई देने लगी । इस परिवेश से यहां की पंचायती राज व्यवस्था भी अछूती नहीं रही । जनप्रतिनिधि जनसेवक न बनकर मालिक बन गये तथा स्वहित में निर्णय स्वयं ही लेने लगे । वेतन बढ़ोत्तरी की बात हो या सुविधायें संजोये जाने की चर्चा सभी पक्ष में इनके स्वर एकजुट हो चले । कहीं कोई विरोध नहीं आखिर विरोध करे भी तो कौन, सभी की बिरादरी एक ही तो है । सभी जनप्रतिनिधि हैं, जनता के सेवक हैं । पक्ष हो या विपक्ष, वेतन बढ़ोत्तरी, लाभ ढेर सारी सुविधायें संजोये जाने की लालसा आखिर किसे न भाये । इनके ऊपर तो कोई और है भी नहीं, जो ऐसा करने से इन्हें रोके । आदर्श तो पहले ही वानप्रस्थ की ओर चला गया जहां कभी इस देश के राष्ट्रपति वेतन के नाम पर मात्र १ रू. की राशि लिया करते थे । आज तो जनप्रतिनिधि लाखों-करोड़ों की गोद में बैठे हैं । स्वयं की मांग, स्वयं का समर्थन, न कोई रोक, न कोई टोक, न विरोध, न प्रदर्शन, पांचों अंगुली घी में, चांदी ही चांदी, फिर पूछना ही क्या । देश की सर्वोपरि जनता बेचारी मात्र मत के अधिकार तक ही सिमट कर रह गई है । चुनाव में किसी न किसी को तो मत देना ही है, न भी दे तो इस प्रजातंत्र रूपी लाभतंत्र में कौन किसका क्या बिगाड़ लेगा? मत दो तो ठीक, न दो तो ठीक । इस प्रजातांत्रिक प्रणाली में जो मत पड़ेगा वही निर्णायक होगा । पक्ष हो या विपक्ष, क्या फर्क पड़ता है? सभी एक जैसे ही तो हैं । आज नहीं तो कल, सत्‍ता किसी न किसी के पास तो होगी ही । लाभ संजोने के अधिकारी येन-केन-प्रकारेण सभी होंगे ।

वर्तमान में लाभ पद को लेकर देश भर में उठे विवाद से एक भूचाल आता दिखाई दिया और इसके समाधान में सभी एकजुट हो चले । स्वयं का संविधान, स्वयं पारित करना ! ऐसे हालात में लाभ पद से उभरे विवाद से बचने का हल आखिर सभी ने मिलकर ढूंढ ही तो लिया । संविधान का स्वरूप ही स्वहित में बदल डाला । अब बतायें, इस तरह की व्यवस्था को स्वलाभतंत्र न कहा जाय तो क्या कहा जाय । जहां प्रजातंत्र अप्रासंगिक बनता जा रहा हो । इस तंत्र में ये जनसेवक न होकर मालिक बन गये हैं । जो चाहे स्वहित में निर्णय ले सकते हैं । जितने पद चाहे अपने पास तालमेल बिठाकर रख सकते हैं, जिसे चाहे लाभ के पद पर बिठा सकते हैं । ये जो भी निर्णय लेते हैं, देशहित एवं जनहित से इनका कोई वास्ता नहीं । जब कोई खतरा इनके पास मंडराता है तो सभी एक स्वर से देश पर संकट आने की घोषणा करने लग जाते हैं । पर जब देश के अन्दर महंगाई बढ़ती रहे, रोजी-रोटी की समस्या को लेकर आम जनता चिल्लाती रहे, कान में तेल डालकर ये कुंभकरणी नींद के खर्राटे में गोते लगाते रहते हैं और जब जागते हैं तो धर्म, जाति, भाषा, आरक्षण की वोट राजनीति के पीछे एक दूसरे को लड़ाते रहते हैं । और जब इनसे भी इनका मकसद हल नहीं होता तो देश पर संकट का नाम लेकर सीमा युद्ध की मीमांसा में पूरे देश को उलझाकर जनता का ध्यान वास्तविक समस्या से दूर हटाने का अद्‌भुत प्रयास करते हैं । और इस तरह की कूटनीतिक चाल में प्रायः ये सफल भी हो जाते हैं ।

इस तरह के स्वहित से भरे अनेक कारनामे प्रजातंत्र के सजग, प्रहरी, जनता के सेवक कहे जाने वाले वर्तमान में जनप्रतिनिधियों के देखे जा सकते हैं । जिनके लिये राष्ट्रहित एवं जनहित की भावना स्वहित से कोसों पीछे छूट गई है । सरकारी तंत्रों की गिरती साख, घोटालों की भरमार, बढ़ती महंगाई, लूट-खसोट, आतंकवाद आदि-आदि स्वार्थपूर्ण राजनीति की ही तो देन है । संविधान में जो बातें इनके हित की हैं उसे नहीं बदले जाने की मीमांसा पर प्रायः सभी एकमत हैं । इसी कारण बिना जनप्रतिनिधि बने ही ये प्रजातंत्र के सर्वोच्च पद पर भी विराजमान हो जाते हैं । जितनी जगह ये चुनाव लड़ सकते हैं और जनप्रतिनिधि चुने जाने पर छोड़ सकते हैं । चाहे चुनाव का भार दुबारा या तिबारा देश की जनता पर ही भले ही क्यों न पड़े? सरकारी बंगला, हवाई-रेल यात्रा, टेलीफोन एक बार पा जाने पर जिंदगी भर उसका लुत्फ उठाने की आदत सी पड़ जाती है । देश का माल जितना चाहें विदेशी खातों में जमा करते रहें । बिस्तरों के नीचे छिपाते रहें और ताउम्र कब्र में पांव लटकने तक जनप्रतिनिधि बने रहने की लालसा मन में पाले रहें । पढ़े-लिखे हों या अनपढ़, जंगलों की खाक छानी हो या डाकू बनकर हत्यायें, लूट-पाट, आगजनी, देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त रहें हो, इनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता । ऐसे हालात में भी यहां ये जनप्रतिनिधि बनकर प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र की बागडोर थामने का भरपूर प्रयास करते हैं और अपने इस प्रयास में सफल भी हो जाते हैं । इस तरह के हालात में प्रजातंत्र का जो स्वरूप उजागर हो रहा है उसमें जनता के सेवक बनाम जनप्रतिनिधि का मालिकाना भाव स्वहित में उभरना स्वाभाविक है । जहां धन व यश बटोरना मुख्य ध्येय बन गया हो, तभी तो झोपड़ी से महल तक की इनकी यात्रा एवं इनके रूप में काफी बदलाव देखा जा सकता है । जहां इनके चेहरे पर कुटिल मुस्कान, मन में छल के ख्याली पुलाव सदा उभरते रहते हैं ।

वर्तमान हालात में जहां स्वहित की परिधि में घिरे प्रजातंत्र के जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च शक्‍ति निरंकुश रूप में विराजमान हो, इस तरह की व्यवस्था राष्ट्रहित एवं जनहित में कदापि नहीं हो सकती । यह तभी संभव है जब प्रजातंत्र में जनप्रतिनिधियों के ऊपर हर वर्ग को प्रतिनिधित्व करती हुई सर्वोच्च शक्‍तिमान समिति गठित हो । जो इनकी गतिविधियों पर नजर रखते हुए राष्ट्रहित में जनहित में निर्णय लेने में सक्षम हो । तभी प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र के स्वरूप में बदलाव लाया जा सकता है । परन्तु भारतीय संविधान में संभवतः इस तरह का कर पाना वर्तमान प्रणाली में कहीं दिखाई नहीं देता और इस तरह के संशोधन लाने की प्रक्रिया में प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र से जुड़े प्रतिनिधि अपनी सहमति व्यक्‍त कर सकें, दूर-दूर तक इसके आसार नहीं दिखाई देते । कौन अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी चलाना पसंद करेगा । रोज-रोज सोने की अंडा देने वाली मुर्गी को कौन हलाल करना चाहेगा? आदि-आदि । इस तरह के ज्वलंत अनेक प्रश्‍न निश्‍चित तौर पर प्रजातंत्र के वास्तविक स्वरूप को विद्वत करने में जुटे हैं जहां राष्ट्रहित व जनहित से स्वहित की भावना सर्वोपरि हो चली । जहां प्रजातंत्र बनाम लाभतंत्र की व्यवस्था में यह पंक्‍ति चरितार्थ हो चली है कि

‘देश की जनता ने/ बड़े शौक से/ हमारे सिर ताज रखा है/ हम देश के मालिक हैं/ जो चाहेंगे वही करेंगे/ न सुनेंगे न सुनने देंगे ।’

Wednesday, April 7, 2010

अप्रैल मध्योपरान्त गर्मी बढ़ेगी

[७ अप्रैल से १३ अप्रैल थोड़ा मौसम ठंडा रहेगा । १३ अप्रैल और २८-२९ अप्रैल को आंधी और वर्षा के योग, अप्रैल मध्योपरान्त गर्मी बढ़ेगी । ]

वर्तमान में अभी अप्रैल के प्रारम्भ के दिनों में ही गर्मी काफी तेज है इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में गर्मी में तेज होगी क्योंकि अभी तो सूर्य मीन संक्रांति में है लेकिन जैसे ही सूर्य मेष संक्रान्ति में जाएगा गर्मी काफी बढ़ेगी । क्योंकि ज्योतिष में मीन राशि जलज राशि होती है और मेष राशि अग्नि तत्व की राशि होती है इस कारण १४ अप्रैल २०१० के बाद तेज गर्मी होगी जो दिल्ली व मध्यवर्ती, व पूर्वोत्तर भारत के लिए काफी गरम समय का प्रारम्भ होगा और मई के अन्तिम सप्ताह सिंह के मंगल में प्रवेश के उपरान्त गर्मी काफी तेज होगी और अपने चरम पर होगी । लेकिन अभी अप्रैल में ७-८ तारीख को बुद्ध व शुक्र के भरणी नक्षत्र में प्रवेश करते ही गर्मी से थोड़ा राहत मिलेगी और कुछ पूर्वोत्तर क्षेत्रों में वर्षा होगी और १३ अप्रैल को मीन का सूर्य और चन्द्रमा होने से पूर्वोत्तर क्षेत्रों व पश्‍चिम-दक्षिण क्षेत्रों में भीषण वर्षा व आंधी आ सकती है । इसी प्रकार २८-२९ अप्रैल को भी मेष राशि में सूर्य व बुद्ध की युति तथा चन्द्रमा की पूर्णिमा की स्थिति भी तेज हवा के साथ वर्षा के आसार पूर्वी क्षेत्रों में दर्शाता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अप्रैल मध्योपरान्त गर्मी बढ़ेगी लेकिन १३ अप्रैल और २० अप्रैल २०१० की वर्षा थोड़ी गर्मी से राहत देगी ।

यह कहानी फिल्मी है

शोएब और सानिया का प्यार इस कदर परवान चढ़ा कि सारी दुनिया में चर्चाएं व विरोध आने लगे । उधर सानिया ने शोएब के खातिर अपने बचपन की दोस्ती व सगाई तोड़ी तो उधर शोएब मियां ८ वर्ष पुरानी अपनी पहली पत्‍नी आयशा को पत्‍नी मानने से ही इनकार कर बैठे । यानि आग दोनों तरफ बराबर है । शोएब सानिया व आयशा की ट्रायंगल लव स्टोरी पति-पत्‍नी और वो की तरफ पूर्णतः फिल्मी है । अक्सर किसी कहानी या फिल्म में कुछ दृष्टान्त बीतने के बाद ट्‍विस्ट आता है परन्तु यह कहानी प्रारम्भ होते ही ट्‍विस्ट सस्पेन्स व विवाद को साथ-साथ लेकर आगे बढ़ रही है । मार्च के अन्तिम दिनों में मीडिया में यह खबर कि सानिया मिर्जा का शोएब मलिक के साथ १५ अप्रैल को विवाह होगा । इस चर्चा के साथ कहानी प्रारम्भ हुई । इस चर्चा की आग इस तरह फैली कि इसकी प्रतिक्रियायें और विरोध मिलने लगे । विरोध इस तरह से जैसे कब्र में से मुर्दे उठकर बोलना प्रारम्भ कर दें । आयशा का भी विरोध कुछ इसी प्रकार का है । पिछले ८ सालों में आयशा को ना ही शोएब मलिक की जरूरत हुई और ना ही अपना विवाह साबित करने की जरूरत हुई । इधर सानिया भी शोएब के प्यार में इस कदर पागल व उतावली हो गई हैं कि सारी बातों को ताख पर रखकर वह पूर्ण रूप से शोएब का साथ दे रही हैं । और सच ही तो है फिल्मों में अक्सर गानों में यह शब्द सुनने को मिलते हैं कि जग छूटे, रब रूठे पर प्यार न छूटे । सानिया का भी यही हाल है । यही कारण है कि वह बना बनाया कैरियर व एक अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी की पहचान को ताख पर रखकर शोएब को पाना चाहती हैं । शोएब भी सानिया को पाने के लिए हर विवाद को झेलने के लिए प्रयासरत हैं तभी तो इतने विवादों के बीच पाकिस्तान छोड़ हिंदुस्तान में सानिया के घर पहुँच आये जहाँ पर सारे हिंदू संगठन तो विरोध कर ही रहे हैं साथ ही साथ आयशा द्वारा दर्ज कराये गये केसों में यह आशंका होते हुए भी कि उन्हें जेल हो सकती है इस सब बातों को दर किनार करके दूल्हे मियां दुल्हन से मिलने व विवाह की तैयारी करने हिन्दुस्तान चले आये । देखना ये है कि पति, पत्‍नी और वो की इस लड़ाई में पत्‍नी और वो का परिणाम क्या निकलता है कौन वो साबित होता है ।

सानिया का प्यार अंधा ही नहीं खुदगर्ज भी है ।

[ जिस देश की जनता ने टेनिस जैसे बड़े खेल में सानिया राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने का गौरव दिया है । यह ऐसा गौरव है जहां सानिया व्यक्‍ति नहीं देश के गौरव के रूप में जानी जाती हैं तो फिर वहां वे व्यक्‍तिगत भावनाओं में आकर करोड़ों जनता की भावनाओं को चोट करते हुए वे ऐसे देश से रिश्ता कैसे जोड़ सकती हैं जहाँ से भारत को आजादी से अब तक तरह-तरह के घाव मिलते रहते हैं क्योंकि सानिया मिर्जा की जिन्दगी उनकी अब व्यक्‍तिगत जिन्दगी नहीं है । यदि इन सब के बावजूद सानिया शोएब मलिक से विवाह करती हैं तो सानिया भारतीय टेनिस के साथ-साथ भारत से भी अपना सारा रिश्ता तोड़ लेवें । यदि ऐसा नहीं करती तो भारत की जनता उनसे शादी के बाद सारा रिश्‍ता तोड़ लेगी । ]

सच कहते हैं कि प्यार अंधा होता है यह बात वर्तमान में सानिया मिर्जा के जीवन में हकीकत होते नजर आ रही है । सानिया का प्यार अंधा होने के साथ-साथ खुदगर्ज भी हो गया है । सानिया शोएब मलिक के प्यार में इस कदर पागल हो गई हैं कि अपना सफल कैरियर, अपना भविष्य और अपने गरिमा मई पहचान को भी ताक पर रख दिया है । क्योंकि यह जग जाहिर कि हिन्दुस्तान का समाज या मुस्लिम समाज जितना खुलेपन ढंग से जीवन देता है उतना पाकिस्तान में संभव नहीं है । पाक के जंग में शोएब मलिक की मां नूर मलिक के हवाले से कहा गया है कि वह शादी के बाद सानिया को पाकिस्तान में घर बसाते देखना चाहती हैं । उन्हें सानिया का स्कर्ट पहनना, टेनिस खेलना विदेशी दौरा करना और गैर मर्दों से घुलना-मिलना बिल्कुल पसन्द नहीं है । इससे और भी स्पष्ट हो जाता है कि सानिया और सानिया के परिजनों का बयान कि सानिया शादी के बाद टेनिस खेलती रहेंगी यह संभव नहीं लगता है और एक बार यह मान भी लिया जाए तो क्या सानिया के शादी के बाद जब सानिया भारत के लिए कोई बड़ा मैच खेलने जाएंगी तब हिंदुस्तान की जनता पहले की भांति विश्‍वास, प्यार व शुभकामनाओं के साथ सानिया को खेलने के लिए विदा कर पाएगी । क्या जब कभी भारत-पाक के बीच क्रिकेट मैच होगा तब सानिया अपने पति के जीत की कामना करेंगी या फिर भारत के लिए जीत की कामना करेंगी । पाक अखबारों ने वहाँ के टेनिस एसोसिएशन के मुखिया दिलावर अब्बास के हवाले खबर दी है कि शादी के बाद सानिया पाक टेनिस को बढ़ावा देने में अपना योगदान देंगी जबकि “हमारा समाज” भारतीय टेनिस एसोसिएशन के महासचिव अनिल खन्‍ना के हवाले से यह कहना है कि सानिया और उसके परिजनों ने शादी के बाद भी राष्ट्रमंडल खेलों, एशियन गेम्स, फेडरेशन और लंदन ओलम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने का वादा किया है । पाक का नाम आते ही अपने स्वभाव के अनुरूप शिव सेना और अन्य हिंदू संगठन इस बात को आग की तरह तूल पकड़ाएंगे कि शादी के बाद सानिया पाकिस्तानी हो जाएंगी तो वह भारत के लिए कैसे खेल पाएंगी? भारत और पाक के अखबारों में मुंबई, बरेली और तमिलनाडु में हिन्दू संगठन डांस सानिया के शादी के विरोध में उनका पोस्टर जलाए जाने की खबर आई है और ऐसा हो भी क्यों ना क्योंकि जिस देश की जनता ने सानिया को सम्मान, शोहरत और उच्च स्तर अव्वल दर्जे का नागरिक होने का गौरव दिया है । जिस देश की जनता ने टेनिस जैसे बड़े खेल में सानिया राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने का गौरव दिया है । यह ऐसा गौरव है जहां सानिया व्यक्‍ति नहीं देश के गौरव के रूप में जानी जाती हैं तो फिर वहां वे व्यक्‍तिगत भावनाओं में आकर करोड़ों जनता की भावनाओं को चोट करते हुए वे ऐसे देश से रिश्ता कैसे जोड़ सकती है । जहाँ से भारत को आजादी से अब तक तरह-तरह के घाव मिलते रहते हैं क्योंकि सानिया मिर्जा की जिन्दगी उनकी अब व्यक्‍तिगत जिन्दगी नहीं है । यदि इन सब के बावजूद सानिया शोएब मलिक से विवाह करती हैं तो सानिया भारतीय टेनिस के साथ-साथ भारत से भी अपना सारा रिश्ता तोड़ लेवें । यदि ऐसा नहीं करती तो भारत की जनता उनसे शादी के बाद सारा रिश्‍ता तोड़ लेगी । वैसे इतने विवादों के बीच हो रहे विवाह का वैवाहिक जीवन भी काफी मुश्किलों भरा होगा फिर भी ईश्‍वर सानिया मिर्जा के विवाह को सुखद बनावे ।






नक्सलवाद कोई आतंकवाद नहीं बल्कि असन्तोष का प्रतिशोध है

आज नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जत्थे पर हजार की संख्या में नक्सलवादियों ने अचानक हमला बोला, जिसमें ७५ जवान अब तक शहीद हो चुके हैं, जबकि ८ अन्य जवान घायल भी हैं । मरने वालो में एक उपकमाण्डर और एक सहायक कमाण्डर शामिल हैं । पिछले कई सालों से हमारा देश पश्‍चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार आदि कई राज्यों, जगहों पर नक्सलवादियों एवं माओवादिओं का कहर छाया हुआ है । जिसमें अक्सर आम जनता व सुरक्षा बलों को अपनी जान गंवानी पड़ती है । हालांकि वर्तमान में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम्‌ सजगता व दृढ़तापूर्ण प्रयास के तहत आपरेशन ग्रीन हंट चलाया जाना ये कहा जा सकता है कि सरकार अब जगी है व सजग हुई है, लेकिन क्या सरकार द्वारा चलाये गये यह प्रयास पूर्णतः सार्थक साबित होंगे । आपरेशन ग्रीन हंट में एकबार सैन्य कार्रवाई द्वारा या सुरक्षा बलों द्वारा एक बार हम इन्हें खदेड़ने में सफल हो भी जाते हैं तो क्या इस समस्या का जड़ से निदान हो सकेगा । किसी भी विद्रोह का जन्म असन्तोष से होता है और असन्तोष हमेशा असन्तुलन से पैदा होता है । निस्संदेह देश के अन्दर एक खतरनाक उग्रवादी की शक्ल लिये अपने ही बीच के भाई बन्धु या देश के नागरिक इस मिशन पर जाने के लिए इसलिए जाने को उतारू हैं, क्योंकि कहीं न कहीं हमारे देश, समाज व कानून की व्यवस्था के प्रति असंतोष पैदा हुआ है । देखा जाय तो देश का अधिकतर वही क्षेत्र इनसे प्रभावित है जहाँ पर आदिवासी पिछड़े वर्ग एवं गरीब जनजाति रहती है । कहा जाता है कि जब सज्जन व्यक्‍ति आक्रोश व प्रतिशोध में जलता है तो उससे बड़ा दुर्जन कोई नहीं होता है और वह भयावह स्थिति को जन्म देता है । उदाहरण के तौर पर देखा जाय तो हाथी बड़ा ही सीधा, धैर्यशाली व शांत जानवर माना जाता है, परन्तु जब वो यातनावश पागलपन का रूप धारण करता है तो उससे खतरनाक कोई जानवर नहीं होता है । ये पिछड़ी जनजातियां भी समाज की दबी कुचली आमतौर पर सीधी और हर स्थिति में संतोष करने वाली ही होती हैं लेकिन जब कभी भी इनके असंतोष को कुछ चालाक व अहिंसक प्रवृत्ति के व्यक्‍ति बर्गलाकर आक्रोश का रूप देते हैं तो यही लोग हिंसक बन जाते हैं और प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए नक्सलवाद के सिपाही बन जाते हैं । हालांकि इन्हें संतुष्टि नक्सलवाद के सिपाही का रूप लेने से भी नहीं मिलती और चालाक व स्वार्थी प्रवृत्ति के लोगों के मोहरे ही बनकर रह जाते हैं । अपनी जिन्दगी को इतना खतरनाक व घातक रूप देने के बाद भी न ही इन्हें कोई लाभ होता है और ना ही समाज को । ये अपने प्रतिशोध से केवल आक्रोश और हिंसा ही फैलाते हैं । सरकार को भी इस मुहिम को जड़ से समाप्त करने के लिए इनके मनोभाव को समझना पड़ेगा । इन्हें व्यस्थित सम्मान के द्वारा एक सम्मानित जीवन देना होगा तभी ये अपने द्वारा उठाये गये कदम को गलत समझकर एक नई राह पर अच्छे देश के सिपाही बनकर मन में देश के प्रति आस्था जगा पायेंगे । इस नक्सलवाद को जन्म देने में सरकार की वो कुरीतियां भी जिम्मेदार हैं जो एस. सी व एस. टी वर्गों के कथित हितों के लिए काम करने वाले सभी संवैधानिक सरकारी, संसदीय, गैर सरकारी एवं सामाजिक व प्रकोष्ठ, पर देश भर में केवल एस. सी के लोगों ने कब्जा जमाया कि आदिवासियों के हित दलित नेतृत्व के यहां गिरवी हो गये हैं । दलित ने छात्र ने एससी एवं एसटी. के हितों की रक्षा एवं संरक्षण के नाम पर केवल एससी के हितों का ध्यान रखा । केन्द्र या राज्य की सरकारों द्वारा यह तक नहीं पूछा जाता कि एससी एवं एस टी वर्गों के अलग-अलग कितने लोगों या जातियों या समाजों का उत्थान किया गया । ९ प्रतिशत मामलों में इन दोनों वर्गों की रिपोर्ट भेजने वाले और उनका सत्यापन करने वाले दलित होते हैं, जिन्हें आमतौर पर इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि आदिवासियों के हितों का संरक्षण हो रहा है या नहीं और आदिवासियों के लिए स्वीकृत बजट दलितों के हितों पर क्यों खर्चा जा रहा है? इस तरह से देश की इन कुव्यवस्थाओं को सुधारना होगा और सही मायने में आदिवासियों का हक उन तक पहुँचाना होगा कि वे भी इस देश के सशक्‍त और सम्माननीय नागरिक हैं । और सभी नागरिकों की तरह इस देश को उन की भी जरूरत है । किसी भी आक्रोश, असंतोष का हल प्रतिशोध नहीं होता और निर्दोष व आम जनता का नुकसान हो सकता है । ऐसी स्थिति में उन्हें सही मार्गदर्शन सही रास्ते व राहत की नितान्त आवश्यकता है । सभी मीडिया को एकत्रित होकर इन नक्सलियों के दिल में आत्मसमर्पण व सही रास्ते पर चलने का भाव जगाना चाहिए । मीडिया व सरकार मिलकर इनके दिलों में खोया हुआ विश्‍वास वापस पाने की चेष्टा करें तो नक्सलवाद व माओवाद जड़ से ही समाप्त नहीं होगा, अपितु कभी दुबारा जन्म नहीं लेगा । क्योंकि यह नक्सली बाहर से आये दुश्मन नहीं बल्कि हमारे देश के ही भाई-बन्धु हैं जो हम से असंतुष्ट होकर बागी हो गए हैं और दुश्मनों से लड़ा जा सकता है परन्तु अपनो से लड़ेंगे तो अपना ही नुकसान करेंगे ।

नोटों की माला बी० एस० पी० को, सशक्‍त और प्रसिद्धि दिलाने का हथकण्डा

२५ वर्ष पूर्ण करने के बाद बी० एस० पी० ने अपने मजबूत अस्तित्व का आगाज पूरे देश में कर दिया है । पिछले ३ वर्षों में बी० एस० पी० के नए रूप ने अपना जलवा व अपनी सफलता का अप्रत्याशित जौहर बिखेरा ही है । साथ ही १५ मार्च २०१० को हुए इस महा रैली में मायावती सुप्रीमो ने अपने अड़ियल व हठी स्वभाव को एक बार फिर साबित कर दिया । यह स्वभाव ही इनके ख्याति व मजबूती का आधार है । मायावती अब तक के जीवन में ऐसे कई कारनामे करती आयी हैं जिसमें विपक्षियों को विरोध करने का मौका मिलता है और उस विरोध से मायावती की ख्याति खुद ब खुद बढ़ती रहती है । जैसे कभी नए नए जिले बनाये, तो कभी मूर्त्तियाँ और पार्क बनाये और इसी कड़ी में इस रैली में नोटों की माला दो बार पहन कर अपने हठी स्वभाव का परिचय दिया । इसे मायवती का हठी स्वभाव कहें या चर्चा व सुर्खियों में आने का हथकंडा कहें । क्योंकि मायावती यह जानती हैं कि विपक्षी जितने भी आरोप लगाएंगे उनकी प्रसिद्धि उतनी बढ़ेगी और उनका दलित वोट बैंक पर विपक्षियों द्वारा विरोध या आरोप पर कोई असर नहीं पड़ता है अपितु और मजबूत होता है । साथ ही सवर्णों को जोड़ने से काफी हद तक सवर्ण वोट बैंक भी बढ़े हैं । आई० बी० एन० ७ के मैनेजिंग एडीटर आशुतोष कहते हैं कि काशीराम हमेशा अस्थिर व मजबूत सफर के पक्षधर थे जिससे ज्यादा प्यारा दलितों को मोबिलाइज करने का मौका मिलेगा । बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के बाद पहली बार किसी शख्स ने उत्तर भारत में दलित तबके में यह उम्मीद जगाई थी ।
अंबेडकर दार्शनिक थे, कांशीराम खाटी राजनीतिज्ञ । अंबेडकर ने सोयी दलित चेतना को जगाने का काम किया लेकिन वो कभी भी कांग्रेस सिस्टम को तोड़ नहीं पाये और इसलिये जब उन्होंने राजनीतिक दल बनाया तो नाकामयाब हो गये, लेकिन कांशीराम ने अंबेडकर की बनायी जमीन को उर्वर किया, जागी दलित चेतना को यह भरोसा दिया कि वो अपना दल बनाकर उच्च जातियों को टक्कर दे सकते हैं । इसके लिए जरूरी था कि कांशीराम उच्च जातियों से टकराव मोल लें और उनके झुकने को विजिबल सिंबल में तब्दील करें । दलित तबका इस असंभव को संभव होते देखे और ये तब तक संभव नहीं होता जब तक कि वो मिलिटेंट आवाज में बात न करें और अपनी मजबूती और उच्च जातियों की मजबूरी का अहसास न करायें ।
लोग कहते हैं कि आज कांशीराम होते तो वो मायावती के काम से असहमत होते । मैं कहता हूं कि वो होते तो मायावती को शाबासी देते । लोग भूल जाते हैं कि मायावती की आक्रामकता ने ही कांशीराम को आकर्षित किया था, उन्हें दलित चेतना में आग लगाने के लिये दब्बू किस्म के लोगों की जरूरत नहीं थी । मायावती को कांशीराम ने प्रशिक्षित किया है और अपने जीते जी उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया था । आज लोग भले ही मायावती के मूर्तियां और म्यूजियम बनाने पर नाक-भौं सिकोड़ें, इसे पैसा कमाने का तरीका मानें लेकिन बारीकी से देखें तो पता चलेगा यह दलित उभार के प्रतीक हैं और उच्च जातियां इन पर जितना बवाल खड़ा करेंगी बीएसपी उतनी ही मजबूती होगी । इनके बीच मायावती को सिर्फ दलितों को कांशीराम की भाषा में यह संदेश भर देना होगा कि क्या हमें हजारों साल के बाद अपने नेताओं की मूर्तियां बनाने का भी हक नहीं ?
क्या हमें नोटों की माला पहनने का भी अधिकार नहीं है । यह इस सवाल का जवाब है कि मायावती तमाम हो-हल्ले के बीच दोबारा सार्वजनिक मंच से नोटों की माला पहनती हैं और यकीन मानिये कांशीराम इस पर खुश होते नाराज नहीं क्योंकि वो होते तो वो भी यही करते ।

सानिया मिर्जा का विवाह तनाव के बीच सम्पन्‍न होगा

आजकल सानिया मिर्जा का विवाह शोएब मलिक से होने को लेकर चर्चाएं काफी गरम है । पिछली बार भी जब सानिया मिर्जा का विवाह जब तय हुआ था और वो विवाह कुछ ही महिने में टूट गया था इसके पीछे खामियां भी जन्मपत्री में सप्तमास चंद्रमा का मेष राशि में पाया जाना और नौमास चक्र सप्तमस चंद्रमा का आठवें घर में पाया जाना है । सानिया मिर्जा एक ऐसी व्यक्‍तित्व है जो कि देश का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए उनसे जुड़ा हर मामला केवल व्यक्‍तिगत नहीं रहता इसका देश के आमजन पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है । और आम जनता ये जानने को इच्छुक रहती है कि जो हो रहा है वो किस हद तक सही है । सानिया मिर्जा की जन्मपत्री में नौमान्स चक्र में सप्तमेष के अष्टम्‌ भाव में पाये जाने के कारण विवाह में अवरोधक होता है विशेषकर २६ वर्ष के अवस्था के पूर्व जो भी विवाह जोता है उसमें अड़चने आती है । वर्तमान में भी जो विवाह की तिथि निश्‍चित की गयी है उसमें काफी अड़चनों के योग दिखाई दे रहे हैं । ७ अप्रैल से १५ अप्रैल २०१० में वर्तमान में उत्पन्‍न विवाह पर काबू पा लिया जाये लेकिन १४ अप्रैल के बाद से ग्रहों की स्थिति देखते हुए १५ अप्रैल को विवाह सकुशल सम्पन्‍न हो पायेगा ।
हो सकता है कि ये विवाह टल कर के जुलाई से अगस्त के बीच रख दी जाये क्योंकि १५ अप्रैल को ग्रहों की स्थिति को देखते हुए सप्तमेष चंद्रमा का चतुर्थ भात में शुक्ल बुद्ध व सूर्य के साथ युक्‍ति साथ ही साथ मंगल का बीच का होना इन सभी दृष्टिकोणों से विवाह में अवरोध की आशंकाऐ ज्यादा दिखाई दे रही है । लेकिन इन सब ग्रहों की स्थिति को देखते हुए यदि तनाव के वातावरण में विवाह होता भी है तो शुरू के दिनों में वैवाहिक जीवन में सानिया मिर्जा को कठिनाईयों का सामना करना ही पड़ेगा, और इस विवाह में बड़ा ही विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए क्योंकि इससे इसके कैरियर पर भी प्रभाव पड़ेगा । २८-२९ साल केर उम्र के बाद सानिया के लिए वैवाहिक जीवन अवरोधक साबित हो सकता है ।

जून २०१० में बिग बी के आंगन में किलकारियों की आहट सुनाई देगी

सदी के महानायक पिछले दिनों बयान था कि वे ऐश्‍वर्या एवं अभिषेक से आशा करते हैं कि वे जल्द से जल्द घर में नवजात बच्चे की किलकारियाँ सुनावे । और यह हर च्यक्‍ति की प्रबल इच्छा भी होती है कि बेटे की शादी के बाद जल्द से जल्द पोता-पोती के साथ खिलाने का सुख प्राप्त कर सके । ऐसी स्थिति में हम आप सब को बताना चाहेंगे कि बिग बी की यह इच्छा वर्ष्पूर्ण होगी । ऐश्‍वर्या की जन्मपत्री के अनुसार उनके कन्या लग्न के जमांग चक्र मे सन्तानोअत्पत्ति की कोई विशेष दिक्‍कत नही है अलबत्ता विवाह के एक वर्ष तक ऐश व अभिषेक संतात्पत्ति के लिए खुद ही विशेष रूचि नही थी जब उन दोनो ने इसके लिए प्रयास किया तो दोनो की जन्मपत्रियां अवरोध ग्रह वृहस्पति प्रबल और पिछले दिनो गोचर से नीचे का होने के कारण तथा कन्या का शनि वृहस्पति से षडाष्टक योग बनाने के कारण गर्भधारण के योग नही थे परन्तु मई २०१० से मीन राशि का वृहस्पति व कन्या का शनि दोनो आमने-सामने होने के कारण एवं सएक दूसरे को देखने के कारण गर्भधारण के प्रबल योग बन रहे है । सर्वाधिक उम्मीद है कि जून २०१० के अन्तिम सप्ताह में कर्कस्थ शुक्र वृहस्पति से मूल त्रिकोण का सम्बन्ध स्थापित कर और जू २०१० के अन्तिम सप्ताह के पूर्णिमा पड़ने के स्थिति को देखते हुए जून २०१० के अन्तिम सप्ताह १९ जून २०१० से ३० जून २०१० के बीच हर हाल में ऐश गर्भधारण कर जाएंगी । गर्भधारण के कारण अपने पेशे और बालीवुड के गतिविधियों को कम करेंगी लेकिन २०११ के प्रारम्भ में ६ फरवरी मार्च तक सन्तान उत्पति के बाद २४/४/२०१० के बाद ऐश पुनः अपने कैरियर का जौहर तेजी से बिखेरेगी ।

धर्म और विज्ञान का अंतर्द्वन्द


अक्सर धर्म और विज्ञान में अंतर्द्वन्द सुनने को मिलता है । पिछले दिनों एक न्यूज चैनल पर धार्मिक जानकारों एवं वैज्ञानिकों के बीच में एक डिबेट आयोजित किया गया था कि “क्या भगवान का अस्तित्व है?" क्या धर्म समाज की बुराईयों और लोगों की समस्याओं को सुलझा पाने में समर्थ है? इस दिशा में विज्ञान ने क्या अच्छा कार्य किया? देखा जाय तो इस परिचर्या में दोनों ही पक्ष के लोग लड़ते नजर आए लेकिन दोनों में से कोई भी पक्ष एक दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पाए । यहाँ सबसे पहले यह तय होना जरूरी है कि पहले विज्ञान आया या धर्म । निःसंदेह इस पूरी सृष्टि का हर जीव भावनाओं की मिट्टी से बना हुआ है । भावना ही सुख या दुख प्रदान करती है । जब कभी भी सामान्य तौर पर सबके अनुकूल या सबके प्रतिकूल कोई भी चीज होती है वहीं पर जीवनशैली में नियमावली की आवश्यकता का जन्म होता है । तभी संस्कृति की उत्पत्ति होती है और इसी संस्कृति से धर्म का निर्माण होता है । या यूँ कहें धर्म और संस्कृति एक दूसरे के परिपूरक हैं । चूँकि सृष्टि का निर्माण, सृष्टि में पल रहे जीवों का निर्माण पूरी प्राकृतिक व्यवस्था पर निर्भर करती है इसलिए हमारी सारी संस्कृति या धर्म प्रकृति के नियमों के अनुरूप होना स्वाभाविक है । यह बात अलग है कि भौतिक कारणों से या कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा कुछ आडम्बर धर्म के नाम पर प्रकृति के नियमों के विरूद्ध भी होता है जिसे धर्म का चोला पहनाया जाता है । जैसा कि हमारा धर्म कहता है कि कण-कण में ईश्‍वर का वास है ।
पूर्ण सृष्टि के संचालक ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं । जहाँ तक आज की तारीख में वैज्ञानिक आधार पर देख रहे हैं कि दृष्टिगत आधार पदार्थ मात्र है जिसका मूलकण परमाणु है तथा परमाणु की संरचना तीन सूक्ष्म ऊर्जाओं से बनी है । इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन । इन तीनों की संयुक्‍त ऊर्जा से ही पदार्थ की संरचना हुई है । और यही संरचना हमारे, सौरमंडल की भी है और देखा जाय तो हमारे धर्म में ब्रह्मा, विष्णु, महेश के गुणों का जो बखान किया गया है वह प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन जैसा ही है । अतः यह साबित होता है कि धर्म की उत्पत्ति से पहले ही धर्म के आधार पर प्रकृति की गहराइयों को खंगालते हुए इंसान की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान का जन्म हुआ । बल्कि हम यह कहें कि विज्ञान को विज्ञान शब्द का नाम तो बहुत बाद में मिला लेकिन हमारे दिनचर्या और हमारे संस्कृति में बहुत से नियमों का पालन या प्राकृतिक सुविधाओं का उपयोग किया गया है जो पूर्णतः वैज्ञानिक है । विज्ञान हमसे, जीवन मात्र से या प्रकृति से परे नहीं है । वैज्ञानिक आज भी जीवन की उत्पत्ति का सही आधार स्पष्ट करने में असफल ही कहे जाएंगे और अपने सौर मंडल की संरचना में पृथ्वी के जीवन से परे किसी अन्य सौर मंडल की संरचना या किसी अन्य ग्रह पर जीवन की बात हो तो उनकी सारी बातें काल्पनिक आधार पर ही सामने आती हैं और जो कुछ भी सामने आता है चाहे वह धर्म में किसी भी आधार पर हो, पहले ही बताई जा चुकी बात होती है ।
मंगल पर जीवन की बात बार-बार सुनने को मिलती है । यह बात स्पष्ट है कि हमारे सौरमंडल में सूर्य के चारों ओर जो ग्रहों की परिक्रमा हो रही है वह अभिकेन्द्रीय और उत्केन्द्रीय बल के कारण व्यवस्थित तो चल रहे हैं परन्तु हर ग्रह अपनी अच्छी गति के कारण आंतरिक आणविक ऊर्जा के ह्रास का शिकार हो रहा है जिससे ग्रह अपने बाहरी कक्षा की तरफ खिसक रहे हैं और उत्केन्द्रिय बल मजबूत हो रहा है । इस सिद्धान्त की बात करें तो मंगल कभी न कभी आज से हजारों साल पहले इस पृथ्वी वाले कक्षा में परिक्रमा कर रहा था, जिस कक्षा में जीवन के लिए पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन है जो द्रव्य तापमान इत्यादि थे किन्तु उत्केन्द्रीय बलों को मजबूत होने के साथ-साथ मंगल सूर्य से दूर होता गया और तापमान घटता गया इसलिए हम कह सकते हैं कि मंगल पर जीवन था । यह बात धर्मग्रंथों और पौराणिक कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती है वहीं पर ग्रह की आयु और सौरमंडल की आयु तक निर्धारित की गई है । वहाँ स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एक प्लैनेट की आयु को मनुअंतर कहा गया है और उसको चार युगों में बाँटा गया है । और एक सौरमंडल की आयु को महाकाल बोला गया है । ठीक इसी प्रकार धर्मों में मुख्यतः जितने व्रतों का पालन कराया गया है मुख्य तौर पर नवरात्र हो या अन्य कोई पूर्णिमा का व्रत हो आप देखेंगे कि सारे नवरात्र ऋतु परिवर्त्तन के समय में होते हैं एक ऋतु से दूसरे ऋतु में शरीर को प्रवेश कराने के लिए तथा शरीर को उसके अनुकूल बनाने के लिए नवरात्रि व्रत का चलन किया गया है । यह बात दीगर है कि उसके पीछे देवी या आस्था को मुख्य तौर पर प्रसारित इसलिए किया गया है कि व्यक्‍ति आस्थावान्‌ होकर सही ढंग से नियमों का पालन करें और उससे स्वास्थ्य का लाभ उठावे क्योंकि आस्था या भगवान का भय तो इंसान से कुछ भी पालन करा सकता है लेकिन इंसान को वास्तविक सच्चाई बताई जाएगी तो वह अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पाएगा और शुद्ध नहीं कर पाएगा और बिना मन शुद्धि के स्वास्थ्य लाभ नहीं लिया जा सकता ।
इसी प्रकार पूर्णिमा का जो व्रत है उसके पीछे तथ्य यह है कि पूर्णिमा में चंद्रमा पूर्णरूप से प्रभावी होता है और पृथ्वी विशेषकर जल पर प्रभावी है जैसा कि समुद्र में ज्वार भाटा देखने को मिलता ही है । जैसा कि आप जानते हैं इंसान के अन्दर ८५% पानी होता है और इस पर चंद्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्‍त में न्यूरॉन सेल्स काफी क्रियाशील होते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान भावविभोर होता है खासकर उन इंसानों के लिए ज्यादा प्रभावी होता है जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है । अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्‍ति की भोजन करने के बाद नशा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है । यही कारण है कि पूर्णिमा के समय ऐसे व्यक्‍तियों पर चंद्रमा ज्यादा कुप्रभावी होता है । इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखा गया है । ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हमारे धर्म में पूर्णतः प्राकृतिक हैं साथ ही साथ विज्ञान की उत्पत्ति धर्म के बाद है धर्म से पहले नहीं । हम यह कह सकते हैं कि सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से इंसान को मजबूत होने के बाद भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान शब्द नाम दिया गया है जबकि इंसान के जीवन की उत्पत्ति के साथ-साथ हर कदम हर क्षण पर उसके अंदर संस्कृति, विज्ञान आदि का विकास निरंतर होता रहा है हम यह भी कह सकते हैं कि विज्ञान उसके संस्कृति का ही एक अंग है जो भौतिक रूप से काफी उत्कृष्ट रूप ले लिया है । जहाँ तक भगवान की बात है तो यह प्रकृति ही भगवान है । इस प्रकृति का वह सूक्ष्मतम आधार जो हम ऊर्जा के नाम से जानते हैं (इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन, न्यूट्रॉन) धार्मिक आधार पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश या फिर हम कह सकते हैं तीन शक्‍ति प्लस माइनस और न्यूट्रल ।
इन्हें जिस नाम से पुकारें यही हमारे सृष्टि या जीवन के आधार हैं । हाँ साथ ही यह भी कहेंगे कि यह एक व्यवस्थित तंत्र है जो हमारे जीवन को व्यवस्थित ढंग से संतुलित किए हुए है । अच्छा या बुरा होना उनकी व्यवस्थाओं में सामाहित है । वह किसी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है । भगवान हमारी द्वारा ही बनाया गया एक आस्थावान शब्द है, जिससे हम भावनात्मक रूप से ऊर्जावान होते हैं जिसके समक्ष हम अपने आप से ही बात करते हैं और अपने आपको ही प्रेरणा देते हैं । यह शब्द हमारे जीवन में ना रहे तो हम अपने आप को बहुत ही असहाय और अकेला महसूस करेंगे । क्योंकि हम मानते हैं कि हमें कोई व्यवस्थित रूप से चला रहा है और सत्य है कि जिन शक्‍तियों का जिक्र हमने उपरोक्‍त पंक्‍तियों में किया है वही हमे चला रहा है । यह वैज्ञानिक रूप में उतना ही प्रमाणित है जितना की धार्मिक आधार पर चाहे हम उसे भगवान कहें या हम काल्पनिक आधार पर भगवान का कोई अलग रूप अपने मनःमस्तिष्क में बनावें, परन्तु हम सभी के मन में यह नाम जीवित रहता है जिससे हम बात भी करते हैं शिकायत भी करते हैं आग्रह भी करते हैं और अपनी सारी अच्छाई- बुराई उसको समर्पित करते हुए अपने को दोषमुक्‍त कर नई ऊर्जा का संचार करते हैं ।
- पं० कृष्णगोपाल मिश्रा

Monday, March 22, 2010

शिक्षा और सभ्यता

जिस प्रकार से शिक्षा मानव जीवन को सुधारने संवारने व उसे सामाजिक सुंदर आनंद देने में सहायक होता है उसी प्रकार से समाज में त्यौहारों का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है कि समाज में लोगों को आपस में जोड़ने, प्यार बढ़ाने, संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । भारत में होली हिंदुओं का सबसे बड़ा त्यौहार होता है, और चूंकि हिंदुस्तान एक गंगा-जमुनी तहजीब का परिचायक देश है तो यहाँ सभी धर्मों के लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं लेकिन दुर्भाग्य वश हर साल होली हमारे देश के भविष्य नन्हे नौनिहालों के बोर्ड परीक्षा के समय में होना बड़ा ही उनके कैरियर पर दुष्प्रभावी होता है । क्योंकि बहुत से ऐसे बच्चे जो अपने मन को अपने नियंत्रण में नहीं रख पाते हैं वे होली और परीक्षा दोनों की कश्‍मकश में किसी भी चीज पर केंन्द्रित नहीं रह पाते और बच्चों के परीक्षा पर इनका दुष्प्रभाव पड़ने की आशंका रहती है । साथ ही साथ यह परीक्षा उस समय ही पड़ती है जब अधिकांश नौकरी पेशा लोग मार्च क्लोजिंग के कारण काफी व्यस्तता से गुजर रहे होते हैं ऐसे में वो अपने बच्चों को भावनात्मक सहयोग देने में असफल हो जाते हैं, तथा ऐसी स्थिति में अभिभावक भी होली और नौकरी के तनाव के कारण बच्चों को सहयोग नहीं कर पाते हैं और उनके लिए भी यह समय अनुकूल नहीं कहा जा सकता । साथ ही यह परीक्षा ऐसी होती है, जहाँ से बच्चे अपने जीवन में लक्ष्य को नई दिशा देते हैं, इसलिए यह पूरे जीवन के कैरियर के लिए यह बड़ा ही निर्णायक समय होता है । और इसमें जरा सी भी चूक होने पर यह बच्चों को हताशा-निराशा व हीनता से भर देती है जिससे बच्चे कभी-कभी आत्महत्या, घर से भाग जाना या अन्य गलत निर्णय के तरफ भी भाग जाते हैं । ऐसी स्थिति में बोर्ड परीक्षा करवाने वाली संस्थाओं को इस समय पर विशेष ध्यान रखना चाहिए कि पूरे वर्ष में बोर्ड परीक्षा का सर्वाधिक उपयुक्‍त समय क्या हो? साथ ही गार्जियन को भी इस जीवन की आपा-धापी में जीवन के व्यस्त समय में भी अपने नौनिहालों के साथ सरलता, दोस्ताना व्यवहार करते हुए उनकी हर समस्या को जानें और प्रोत्साहन दें और सरलतापूर्वक उन्हें अपने लक्ष्यों में आगे बढ़ने दें । अगर बच्चे असफल भी होते हैं तो उस पर अफसोस करने से बढ़िया है कि उन्हें अगली सफलता के लिए प्रोत्साहित करें । बच्चों को भी इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि परीक्षा हमारे समाज का अभिन्‍न अंग जरूर है, हम इसमें सफल होकर के अपनी ज्ञानता का परिणाम जरूर साबित करते हैं लेकिन ये परीक्षाएं एक व्यवस्थित सिलेबस पर आधारित होती हैं जो ये तय करती हैं, कि हम उस सिलेबस में परिपक्व हो गये और उस सिलेबस की परिपक्वता उस सिलेबस की बुलंदी तक बांध तक रखता है, लेकिन सही मायने में ज्ञान किसी सिलेबस का मोहताज नहीं होता है, ज्ञान अकेला स्वछंद होता है, उसे किसी परिणाम, परीक्षा या प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती वह खुद-ब-खुद अपना स्थान बना ही लेता है । उदाहरण के लिए इस संसार में ऐसी-ऐसी विभूतियां पैदा हुयी हैं जो किसी स्कूल या सर्टीफिकेट की मोहताज नहीं रही । उदाहरण के तौर पर कबीर, तुलसी, आइंस्टीन, आचार्य रामानुजम आदि बहुत सारे महानविभूतियां हैं जिन्होंने अपने ज्ञान से दुनिया को वो दे दिया जिससे आज संसार आह्लादित है । इसलिए हम आज के बच्चों से ये कहना चाहेंगे की बोर्ड परीक्षा बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन ये कैरियर का अंतिम पड़ाव नहीं कि यहाँ से जिंदगी में कुछ किया नहीं जा सकता । बल्कि बोर्ड परीक्षा में सफलता पाने से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें एक अच्छा इंसान बनना और अपने विचारों को खुला रखना अपने आप को आंकना की हम किस लाइन के लिए उपयोगी हैं, तो शायद हम अपनी वास्तविक प्रतिभा को निखार पायें क्योंकि प्रतिभा सभी इंसान के अंदर होती है । कोई पढ़ाई में प्रतिभावान होता है तो कोई खेल में, कोई लेखक होता है तो कोई गीतकार होता है, आदि । ये जरूरी है कि हम अपने आप को पहचानते हुए हम अपने को सही दिशा दें और किसी भी प्रकार की असफलता से हतोत्साहित ना हों । इसके साथ ही हम सभी पाठक बंधुओं को होली की ढेर सारे शुभकामनाएं देते हैं, होली प्यार सौहार्द्र, मिलनसारिता का प्रतीक है । होली को परंपरागत और सलीके से मनायें । आज के चलन में फूहड़ता को ना आने दें क्योंकि जैसी भी होली हम मनाते हैं वह पूरे विश्‍व में हमारी संस्कृति की झलक पेश करती है । यदि हमारे होली मनाने में जरा सी भी फूहड़ता होगी तो बाहर हमारी संस्कृति का अपमान होगा । अतः एक बार फिर से होली की ढेर सारी शुभकामनाएं साथ ही सभी बोर्ड परीक्षार्थियों को भी शुभकामनाएं कि वो परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास हों व जीवन के हर पड़ाव में अपना परचम लहराएं ।

Friday, February 12, 2010

ज्योतिष के द्वारा कैरियर का चुनाव सही है


27 जनवरी 2010 को रात्रि 10 बजे के आसपास स्टार न्यूज पर लाइव बहस का प्रोग्राम जो कि नोएडा के एक स्कूल में बच्चों के कैरियर काउसलिंग हेतु एक दो घंटे का ज्योतिष क्लासेज चलाए जाने के विषय पर था, इस बहस में ज्योतिषाचार्य, मनोवैज्ञानिक, तर्कशास्त्री स्कूली बच्चे, अभिभावक तथा स्कूल के प्रिंसिपल आदि लोगों ने हिस्सा लिया ।

हमारे देश में किशोरावस्था के बाद बच्चों के कैरियर को लेकर आभिभावकों को बहुत सारी दुविधाएँ रहती हैं । एक तरफ बच्चों के मन की आकांक्षाएं जो कि बहुत हद तक भौतिक परिवेश व भौतिकता के चमक-दमक से प्रभावित होती हैं वहीं दूसरी ओर अभिभावकों के मन में अपने नौनिहालों से जुड़े सपने को लेकर उनपर दबाव और एक तरफ तो इनकी अपनी पढ़ाई की क्षमता व अपने स्वभाव के अनुकूलता को देखते हुए कैरियर के प्रति दुविधा तो स्वाभाविक है । उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि एक बच्चा बहुत साइंस, मैथ्स आदि विषयों में बड़ा अच्छा परिणाम दे रहा है, इसके आधार पर टीचर या अभिभावक साइंस से संबंधित विषयों पर जाएं तो वह कह सकते हैं कि बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर बन सकता है । परन्तु यदि बच्चा अपने कोमल मन में कल्पनाओं, सपनों के जाल से इस कदर प्रभावित है, कि अमिताभ, शाहरूख खान, आमिर खान, उसके जीवन के लक्ष्य में शामिल हो सकते हैं । ऐसी स्थिति में कैरियर का आकलन कौन कर सकता है ? यदि बच्चा अपने ही सपनों में रह कर चले तो क्या गारंटी हैं कि उसे अपने सपनों में सफलता मिल ही जाएगी । तो क्या गारंटी है कि ये कोमल मन दो चार पाँच साल बाद अपने इस लक्ष्य से दिग्भ्रमित नहीं होगा । बहुत से ऐसे बच्चे जो शुरू में पढ़ाई में कमजोर होते हैं और बाद में मजबूत हो जाते हैं, बहुत से ऐसे बच्चे होते हैं जो शुरू में मजबूत और बाद में कमजोर हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में बच्चे के साथ रहने वाले बच्चे के माँ-बाप इन परिवर्तनों का अनुमान तो लगा ही नहीं सकते फिर मनोचिकित्सक किस आधार पर इस बात को जान सकते हैं । एक अच्छा भला आदमी उम्र के किस पड़ाव में सिजोफ्रेनिया, फोबिया व अन्य मानसिक रोगों से कब ग्रसित हो जाय, इनका अंदाजा मनोचिकित्सक तो पहले लगा हीं नहीं सकता, हाँ जब लक्षण होते हैं तो चिकित्सक डाइग्नोस कर सकते हैं । ज्योतिष एक ऐसा विज्ञान है, जिससे आप आदमी का स्वभाव ही नहीं उसके पूरे जीवन के मानसिक एकाग्रता, सोच, स्वभाव में परिवर्तन, स्वास्थ्य में परिवर्तन आदि का आंकलन पहले से ही कर सकता है । ज्योतिष ही एक ऐसा विज्ञान है, जिसमें हम वर्तमान में बच्चों की स्थिति, उसके पिछली पढ़ाई की स्थिति, आगे पढ़ाई की स्थिति, और उसके आगे लक्ष्य में परिवर्तन आदि की स्थिति का पहले आकलन कर सकते हैं, तथा उसे पहले ही दिशा दे सकता है, वैसे ज्योतिष तो ये मानता है कि हर चीज पूर्व निर्धारित है, इसलिए होना वही है जो उसके जन्म के समय निर्धारित हुआ है । लेकिन ज्योतिष विज्ञान फेबरबुल व अनफेबरबुल (कारक व अकारक) दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करके भविष्य का आंकलन करता है । जिस पर ये पूरी सृष्टि बाइंडिंग एनर्जी के तहत विजुवल रूप लेती है, ठीक उसी प्रकार ज्योतिष भी ऋणात्मक व धनात्मक दो तरह के ऊर्जीय सत्ताओं को जोड़ने वाला, एक न्यूट्रल सत्ता को मिलाकर संसार की संरचना का नही, यानि इन तीनों तरह की ऊर्जाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन तरह के ग्रहों के समूह का तुलनात्मक अध्ययन ही ज्योतिष है ।

प्राचीन काल में हमारे यहाँ विज्ञान, इलाज, शिक्षा आदि तरह के कार्यों का जिम्मा सिर्फ ऋषिओं मुनियों का ही था और ये इतने ज्ञानी होते थे कि ये अपने ईगो और प्रतिस्पर्धा के कारण अपने ज्ञान को आम जन मानस तक बहुत आसानी से बांटते नहीं थे बल्कि जनमानस तक अपने ज्ञान का स्वरूप आस्था के रूप में प्रकट करते थे ताकि समाज इनसे जुड़ा रहे तथा एक भय वश इनके सामाजिक बंधन में जुड़ा रहे । अगर ऐसा नहीं होता तो आप सभी जरा सोचिए कि जो विज्ञान आज सृष्टि का आधार पदार्थ भी संरचना का सूक्ष्मतम कण, प्रोटान, इलेक्ट्रॉन व न्यूट्रॉन को अपनी बाइंडिंग एनर्जी को आधार मानता है, और इसी को अपने शब्दों में हमारे ऋषि मुनियों ने ब्रह्‌मा, विष्णु, महेश बोले हैं । अगर ब्रह्मा को देखा जाए तो बह्मा की जो ऊर्जामयी छवि का वर्णन प्रस्तुत किया गया है, वह एकदम जैसे प्रोटॉन की छवि के तरह ही है, क्योंकि प्रोटॉन ही धनात्मक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है । चूंकि इलेक्ट्रॉन ऋणात्मक प्रतिनिधित्व करता है और हमारे यहाँ शिव का आवरण जो बनाया गया है वह काला ठंडा । इन इन दोनों ऊर्जाओं को जोड़कर के बाइंडिंग ऊर्जा पैदा करने वाले तीसरे ऊर्जा का नाम है न्यूट्रॉन । ये न्यूट्रॉन ही इन दोनों ऊर्जाओं के बीच में पाई (निशान) उत्पन्‍न कर एक पदार्थ स्वरूप को विजुअल रूप देता है, और विष्णु हमारे उसी ऊर्जा स्वरूप के प्रतिनिधित्व के रूप में बताये गये हैं । जब ये इतनी छोटी सी बात अपने आप में इतना बड़ा रहस्य लिये हुए है तो फिर हमारे यहाँ ज्योतिष तो विज्ञान का पितामह स्वरूप है । यही नहीं ज्योतिष द्वारा इलाज पद्धति आयुर्वेद काफी कुछ आगे तक एडवांस पद्धति बहुत पहले से लिये चला आ रहा है । उदाहरण स्वरूप एक डॉक्टर जब किसी व्यक्‍ति के पेट में पाचन क्रिया का ठीक हो जाना या एसिड बनता है तो डॉक्टर कहता है कि उसका मेटाबॉलिक सिस्टम ठीक हो गया है लेकिन आयुर्वेद ही इस बीमारी में अलग-अलग व्यक्‍तियों में अलग-अलग नजरिया रखता है । यह ये भी देखता है कि इसके पेट में हाइड्रोक्लोरिक एसिड की अधिकता से पेट खराब हुआ है या कम होने से हुआ है । क्योंकि दोनों को दो नाम देते हैं, जिस में हाइड्रोक्लोरिक एसिड की अधिकता होती है उसे जठराग्नि तथा जिसमें कम होती है उसे मंदाग्नि कहते हैं । अतः यहां पर आयुर्वेद के हिसाब से जठराग्नि हमेशा कफ प्रधान शरीर में होता है और मंदाग्नि हमेशा पित्तज प्रधान शरीर में होता है यानि आयुर्वेद इलाज शरीर के प्रकृति के आधार पर करता है । अतः हम यहां कहना चाहेंगे हमारे यहाँ का ज्ञान विशेषकर आयुर्वेद और ज्योतिष पूर्णतः वैधानिक वैज्ञानिक एवं जांचा परखा तथा अनुभव के आधार पर ही बनाया गया है । अलबत्ता हमारी संस्कृति पर इतनी बार आक्रमण हुआ है कि हमने अपनी भाषा ही खो दी है, और किसी भी ज्ञान का संवाहक भाषा ही होती है, इस कारण इसका प्रचार-प्रसार यह महत्ता हम जगजाहिर नहीं कर पाये । व्यर्थ ही जो हमारे यहाँ बुद्धिजीवी व ज्ञानी लोग थे उन्होंने अपने ज्ञान को छुपाने की कोशिश की ताकि उनकी भी महत्ता समाज में बनी रहे लेकिन आज सारा विश्‍व इन चीजों को बहुत तेजी से महसूस कर रहा है, एवं ज्योतिष की तरफ आकर्षित कर रहा है । ये अलग बात है कि इस क्षेत्र में अगर विज्ञान के छात्र आयें तो ज्यादा रचनात्मकता दिखा सकते हैं । इस क्षेत्र के जरिये कैरियर काउसिलिंग की पहल करना काफी अच्छा होगा, इससे पूर्वाग्रह और स्वार्थी तत्वों के अल्प ज्ञान के ज्योतिषियों से मिलकर इसके लिए पूर्वाग्रह ना अपनाकर एक सकारात्मक सोच अपनाते हुए, विद्वान व्यक्‍तियों का समावेश किया जाना चाहिए, निःसंदेह इस क्षेत्र से कैरियर काउसलिंग काफी अच्छा साबित होगा ।

Wednesday, February 3, 2010

नव वर्ष की शुभ कामनायें

वक्‍त अपना दस्तूर निभाते हुए एक बार पुनः कुछ खट्‌टी-मीठी यादों भरे २००९ को अपने आगोश में समेट कर चला गया और सपनों, आकाक्षांओं, महत्वाकांक्षों एवं आशाओं से भरे सन्‌ २०१० को हमारी झोली में डाल दिया है । जिसका हम सभी बड़े उत्साह से स्वागत कर रहे हैं । सर्वप्रथम अपने पाठकों को वर्ष २०१० के लिए ढेर सारी शुभ कामनाएं देता हूँ कि यह वर्ष उनके सारे सपनों, महत्वाकांक्षाओं व आशाओं को पूर्ण करे, और ईश्‍वर उन्हें सुख, धैर्य और सन्तोष के साथ ही उनके दिमाग को रचनात्मक व अच्छे विचारों से सिंचित करे । नए वर्ष का यह पहला अंक “नई चुनौती, नए पड़ाव” आपके समक्ष प्रस्तुत है जिसमें राजनैतिक गलियारों से २००९ के राजनैतिक परिदृश्य के जरिए यह दर्शाया गया कि राजनीति में कौन अर्थ पर था तो कौन फर्श पर था । खेल जगत में धोनी के धुरन्धरों की पोल खोलती, एक समीक्षा जिसमें आस्ट्रेलिया सीरीज हाथ से जाने की चूक की एक समीक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय कालम्‌ में भारत व रूस की सन्धि एक सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ते कदम । साथ ही २००९ में ही राहुल बाबा के राजनैतिक हीरो या कांग्रेस के शोमैन बनकर उभरने की समीक्षा, स्वास्थ्य जगत में २००९ में स्वाईन फ्लू एक बड़ा मुद्दा बना रहा है जिसका कहर अब भी जारी है । अतः इस अंक में प्रस्तुत है एक लेख जिसमें फ्लू व स्वाईन फ्लू में अन्तर और स्वाईन फ्लू से बचाव व उपाय दर्शाया गया है ।इस वर्ष की ऐतिहासिक उपलब्धि मास्टर ब्लास्टर सचिन तेन्दुलकर की रही है जिसने विश्‍व में भारत का गौरव बढ़ाया है । सचिन के गौरवशाली सफर की और उनके अविस्मणीय उपलब्धियों को समय दर्पण की टीम सलाम करती है, उनके क्रिकेट के गौरवीय जीवन को दर्शाने का प्रयास करता है । साथ में समसामायिक में कैलेण्डरों के उत्पत्ति का इतिहास को भी जानने को मिलेगा । ज्योतिष में वर्ष २०१० की वार्षिक राशिफल के साथ-साथ २०१० ज्योतिषीय आधार पर शेयर-बाजार की स्थिति एवं भारत की आर्थिक स्थिति एवं राजनैतिक स्थिति में दर्शाया गया है । उपरोक्‍त विषय वस्तु के अलावा अन्य बहुत सारी रूचिकर सामग्री पढ़ने को मिलेगा । अतः आशा है उपरोक्‍त सारे विषय वस्तु पर आधारित हमारा यह अंक आपको पसन्द आएगा हम हमेशा आपके अनमोल सुझावों की प्रतीक्षा में हैं । आपसे आग्रह है कि अपने सुझाव भेजकर हमें अनुगृहित करें ।एक बार पुनः आपको वर्ष २०१० की ढेर सारी शुभकामनाएं ।

आस्था

आस्था भावनाओं व विश्‍वास में लिप्त वह शब्द है, जिसके बहुमतलबी आयाम होते हैं । आस्था द्वारा किसी समाज को सुसंस्कृत, व्यवस्थित व संगठित भी किया जा सकता है और आस्था द्वारा किसी समाज का भावनात्मक शोषण भी किया जा सकता है क्योंकि सारी जीव जाति भावनाओं की मिट्टी से बने हैं और जीवन जीने के लिए भावना रूपी ऊर्जा की नितांत आवश्यकता है । हर पग-पग, हर संबंध में मधुरता हेतु विश्‍वास की भी तो आवश्यकता होती ही है लेकिन उस संबंध को प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचाने हेतु, अपने से सर्वोपरि बनाने हेतु व उस संबंध में आदर बनाने हेतु आस्था जैसे भावनात्मक शब्द की उत्पत्ति हुयी है । परन्तु कतिपय इसका यह तात्पर्य नहीं है कि किसी भी समाज का जो अग्रज-पथ-प्रदर्शक येन-केन-प्रकारेण किसी भी प्रकार से ऐसे पद प्राप्त करने वाला व्यक्‍ति इसका गलत लाभ उठाये अगर ऐसा करते हैं तो वो कहीं से भी समाज के ‘मार्गदर्शक’ नहीं हैं । बल्कि अपने स्वार्थ निहित मन के कारण ये ऐसा चोला पहन रखे हैं । समाज के अग्रज हमेशा संत का जीवन जीते हैं समाज ही क्यों बल्कि एक परिवार का मुखिया का मुखिया भी परिवार को चलाने हेतु त्याग करता है फिर तो समाज एक बहुत बड़ा परिवार है, एक बहुत बड़ा दलस्त है । ये कुछ स्वार्थी लोग हमारे आस्था रूपी भावनाओं का मजाक इसलिए बना लेते हैं क्योंकि हमारा समाज या हम दिन-प्रतिदिन अपने संबंधों के मजबूत संगठन को कमजोर करते जा रहे हैं । समयाभाव, चिंताएं, तनाव के मध्य हम अपने संबंधों में भावनात्मक आदान-प्रदान की कमी उत्पन्‍न कर रहे हैं और जब संबंधों के बीच भावनात्मक आदान-प्रदान नहीं होगा तो हमारी उत्पन्‍न भावनात्मक ऊर्जाएं किसी ना किसी पर न्यौछावर तो होंगी ही , क्योंकि हम अपने पारिवारिक वातावरण में भावनात्मक अतृप्ति के शिकार होते हो तो भावनात्मक मन अपने अतृत्प्ति को दूर करने हेतु तो भावनात्मक मन किसी ना किसी संबंध में उत्पन्‍न भावनात्मकता का हिसाब करेगा । ठीक उसी प्रकार जैसे पेट में हाइड्रोक्लोरिड एसिड भोजन के पाचन हेतु स्त्राव होता है और यदि पेट में भोजन ही ना हो तो हाइडोक्लोरिड एसिड का यूज नहीं हो पायेगा और उत्पन्‍न एसिड आमाशय के अन्य ऑरगन्स को क्षति पहुँचा सकता है, या विकृति उत्पन्‍न कर सकता है, ठीक उसी प्रकार हमारा भावनात्मक रूप से अतृप्त मन उसमें सिंचित भावनात्मक ऊर्जाएं हमें भावनात्मक रूप से सुखहीन अरूचिकर बनाती हैं । क्योंकि हम अपने पारिवारिक वातावरण में भावनात्मक अतृप्ति के शिकार होते हैं तो वो भावनात्मक मन अपने अतृप्ति को दूर करने हेतु वो भावनात्मक मन किसी ना किसी संबंध में उत्पन्‍न भावनात्मक ऊर्जा का हिसाब करेगा और यदि किसी अच्छे संबंध में ये आपूर्ति होती है तो निश्‍चित रूप से सकारात्मक परिणाम निकलते हैं, लेकिन गलत संबंधों में आदमी शोषित ही होता है । और यदि किसी अच्छे संबंध में ये आपूर्ति होती है तो निश्‍चित रूप से सकारात्मक परिणाम निकलते हैं लेकिन गलत संबंधों में आदमी शोषित ही होता है लेकिन किसी भी अन्य संबंध में भावनात्मक आदान-प्रदान अगले संबंध में दिखावे, प्यार के प्रदर्शन पर निर्भर करता है और अगला संबंध, दिखावा, प्रदर्शन करने वाला अक्सर स्वार्थी ही होता है । क्योंकि स्वार्थी व्यक्‍ति एक्सप्रेसिव नहीं होता । आज नये-नये बाबाओं के चेहरे धर्मगुरूओं में या सत्संगियों के रूप से उभर कर सामने आ रहे हैं । उनका जीवन खुद ही असंतोष और अतृप्ति से भरा पड़ा है क्योंकि हम सभी जानते हैं कि तृप्त, संतुष्ट या वास्तव में संत व्यक्‍ति को दिखावा, भौतिकता, माया या हूजूम लगा कर के भीड़ जुटाकर के चिल्‍लाने की आवश्यकता नहीं होती है, इसका मतलब ये है कि एक आम आदमी से ज्यादा भावनात्मक संबंधों द्वारा बाजारीकरण का जाल ये बाबा लोग बुन रहे हैं, जिसका आम आदमी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शिकार हो रहे हैं । हम सभी के पास अपनी समस्याओं का इलाज स्वयं में ही निहित है जरूरत है अपने संबंधों में समय देने की हर संबंध में खुल कर के अपने भावनाओं को प्रस्तुत करने की, प्यार बांटने की अर्थात जी भर के संबंधों को जीने की । साथ ही यह भी कहना चाहूंगा कि बीती बातों और संबंधों में गिले-शिकवे भूलकर हमारे पास जो भी है जैसा भी है हमारे पास दुनिया का सबसे प्यारा संबंध है तो देखिए प्यार व भावनात्मक तृप्ति खुद-ब-खुद पैदा होगी और मन भी खुशी से बढ़कर सुख कुछ भी नहीं होता, और सुखी मन के पास ना दुख आता है ना हीं बीमारियां आती हैं साथ ही संबंधों के संगठित होने से आत्मबल खुद ही बढ़ा रहेगा और समस्याएं छोटी नजर आयेंगी । तब किसी बाबा की आवश्यकता नहीं होगी, चूँकि आये दिन ये अपने ग्लैमर शब्दों के प्रभाव चकाचौंध से परिपूर्ण भौतिकता का आवरण ओढ़े सिर्फ और सिर्फ अपने आप को मजबूत कर रहे हैं, और हम भी इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ठगे जा रहे हैं । क्या आपको नहीं लगता कि जिसने पैदा किया था जिसने पाला था जिस भाई-बंधु के साथ जीवन बिताया या जिस जीवन साथी के साथ जीवन भर चलने की कसमें खाईं, इन सभी संबंधों में व्यस्तता जिंदगी की जद्‌दोजहद में अपने से पिछड़ जाने के भयवश क्या जो भावनात्मक आदान-प्रदान की कमी हो रही है इससे संबंधों के प्यार रूपी बंधन को कमजोर नहीं करते जा रहे हैं और इसी के कारण खुशी की कमी, तनाव आदि के शिकार हो रहे हैं । हम कितने बड़े बेवकूफ हैं कि चार दिन में मीडिया द्वारा पैदा हुआ एक नाम बाबा और स्वामी के रूप में सामने आते हैं और हम उनपर आस्था करने लगते हैं । और उपरोक्‍त जिन संबंधों के साथ जीते हैं, जिनके साथ खून का रिश्ता है, जिन्हें हम बचपन से जानते हैं जैसे दोस्त यार, पड़ोसी इन पर विश्‍वास भी नहीं कर पाते । अगर इन संबंधों पर विश्‍वास की डोर बनाए रहें तो कतिपय हमें बहुरूपी बाबाओं पे आस्था की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि मानव मन बड़ा अजीब है जिसे ढंग से नहीं जानता अगर उनकी महिमामंडित करके उसके सामने रखा जाए उसके प्रति आस्था तो पाल लेता है लेकिन जिसे वह बचपन से जानता हो और उसके लिए अपने पूजनीय जैसे कार्य भी ये हो तो भी उसके प्रति आस्था नहीं जग पाती है । इसलिए हमें अपने ही रिश्‍तों में आस्था की सर्वाधिक जरूरत है जिन्हें हम जानते हैं उनपर विश्‍वास करें । जिन्हें हम जानते ही नहीं उस पर कैसे विश्‍वास कर सकते हैं, आस्था तो बहुत बड़ी बात है ।