Wednesday, February 3, 2010

आस्था

आस्था भावनाओं व विश्‍वास में लिप्त वह शब्द है, जिसके बहुमतलबी आयाम होते हैं । आस्था द्वारा किसी समाज को सुसंस्कृत, व्यवस्थित व संगठित भी किया जा सकता है और आस्था द्वारा किसी समाज का भावनात्मक शोषण भी किया जा सकता है क्योंकि सारी जीव जाति भावनाओं की मिट्टी से बने हैं और जीवन जीने के लिए भावना रूपी ऊर्जा की नितांत आवश्यकता है । हर पग-पग, हर संबंध में मधुरता हेतु विश्‍वास की भी तो आवश्यकता होती ही है लेकिन उस संबंध को प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचाने हेतु, अपने से सर्वोपरि बनाने हेतु व उस संबंध में आदर बनाने हेतु आस्था जैसे भावनात्मक शब्द की उत्पत्ति हुयी है । परन्तु कतिपय इसका यह तात्पर्य नहीं है कि किसी भी समाज का जो अग्रज-पथ-प्रदर्शक येन-केन-प्रकारेण किसी भी प्रकार से ऐसे पद प्राप्त करने वाला व्यक्‍ति इसका गलत लाभ उठाये अगर ऐसा करते हैं तो वो कहीं से भी समाज के ‘मार्गदर्शक’ नहीं हैं । बल्कि अपने स्वार्थ निहित मन के कारण ये ऐसा चोला पहन रखे हैं । समाज के अग्रज हमेशा संत का जीवन जीते हैं समाज ही क्यों बल्कि एक परिवार का मुखिया का मुखिया भी परिवार को चलाने हेतु त्याग करता है फिर तो समाज एक बहुत बड़ा परिवार है, एक बहुत बड़ा दलस्त है । ये कुछ स्वार्थी लोग हमारे आस्था रूपी भावनाओं का मजाक इसलिए बना लेते हैं क्योंकि हमारा समाज या हम दिन-प्रतिदिन अपने संबंधों के मजबूत संगठन को कमजोर करते जा रहे हैं । समयाभाव, चिंताएं, तनाव के मध्य हम अपने संबंधों में भावनात्मक आदान-प्रदान की कमी उत्पन्‍न कर रहे हैं और जब संबंधों के बीच भावनात्मक आदान-प्रदान नहीं होगा तो हमारी उत्पन्‍न भावनात्मक ऊर्जाएं किसी ना किसी पर न्यौछावर तो होंगी ही , क्योंकि हम अपने पारिवारिक वातावरण में भावनात्मक अतृप्ति के शिकार होते हो तो भावनात्मक मन अपने अतृत्प्ति को दूर करने हेतु तो भावनात्मक मन किसी ना किसी संबंध में उत्पन्‍न भावनात्मकता का हिसाब करेगा । ठीक उसी प्रकार जैसे पेट में हाइड्रोक्लोरिड एसिड भोजन के पाचन हेतु स्त्राव होता है और यदि पेट में भोजन ही ना हो तो हाइडोक्लोरिड एसिड का यूज नहीं हो पायेगा और उत्पन्‍न एसिड आमाशय के अन्य ऑरगन्स को क्षति पहुँचा सकता है, या विकृति उत्पन्‍न कर सकता है, ठीक उसी प्रकार हमारा भावनात्मक रूप से अतृप्त मन उसमें सिंचित भावनात्मक ऊर्जाएं हमें भावनात्मक रूप से सुखहीन अरूचिकर बनाती हैं । क्योंकि हम अपने पारिवारिक वातावरण में भावनात्मक अतृप्ति के शिकार होते हैं तो वो भावनात्मक मन अपने अतृप्ति को दूर करने हेतु वो भावनात्मक मन किसी ना किसी संबंध में उत्पन्‍न भावनात्मक ऊर्जा का हिसाब करेगा और यदि किसी अच्छे संबंध में ये आपूर्ति होती है तो निश्‍चित रूप से सकारात्मक परिणाम निकलते हैं, लेकिन गलत संबंधों में आदमी शोषित ही होता है । और यदि किसी अच्छे संबंध में ये आपूर्ति होती है तो निश्‍चित रूप से सकारात्मक परिणाम निकलते हैं लेकिन गलत संबंधों में आदमी शोषित ही होता है लेकिन किसी भी अन्य संबंध में भावनात्मक आदान-प्रदान अगले संबंध में दिखावे, प्यार के प्रदर्शन पर निर्भर करता है और अगला संबंध, दिखावा, प्रदर्शन करने वाला अक्सर स्वार्थी ही होता है । क्योंकि स्वार्थी व्यक्‍ति एक्सप्रेसिव नहीं होता । आज नये-नये बाबाओं के चेहरे धर्मगुरूओं में या सत्संगियों के रूप से उभर कर सामने आ रहे हैं । उनका जीवन खुद ही असंतोष और अतृप्ति से भरा पड़ा है क्योंकि हम सभी जानते हैं कि तृप्त, संतुष्ट या वास्तव में संत व्यक्‍ति को दिखावा, भौतिकता, माया या हूजूम लगा कर के भीड़ जुटाकर के चिल्‍लाने की आवश्यकता नहीं होती है, इसका मतलब ये है कि एक आम आदमी से ज्यादा भावनात्मक संबंधों द्वारा बाजारीकरण का जाल ये बाबा लोग बुन रहे हैं, जिसका आम आदमी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शिकार हो रहे हैं । हम सभी के पास अपनी समस्याओं का इलाज स्वयं में ही निहित है जरूरत है अपने संबंधों में समय देने की हर संबंध में खुल कर के अपने भावनाओं को प्रस्तुत करने की, प्यार बांटने की अर्थात जी भर के संबंधों को जीने की । साथ ही यह भी कहना चाहूंगा कि बीती बातों और संबंधों में गिले-शिकवे भूलकर हमारे पास जो भी है जैसा भी है हमारे पास दुनिया का सबसे प्यारा संबंध है तो देखिए प्यार व भावनात्मक तृप्ति खुद-ब-खुद पैदा होगी और मन भी खुशी से बढ़कर सुख कुछ भी नहीं होता, और सुखी मन के पास ना दुख आता है ना हीं बीमारियां आती हैं साथ ही संबंधों के संगठित होने से आत्मबल खुद ही बढ़ा रहेगा और समस्याएं छोटी नजर आयेंगी । तब किसी बाबा की आवश्यकता नहीं होगी, चूँकि आये दिन ये अपने ग्लैमर शब्दों के प्रभाव चकाचौंध से परिपूर्ण भौतिकता का आवरण ओढ़े सिर्फ और सिर्फ अपने आप को मजबूत कर रहे हैं, और हम भी इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ठगे जा रहे हैं । क्या आपको नहीं लगता कि जिसने पैदा किया था जिसने पाला था जिस भाई-बंधु के साथ जीवन बिताया या जिस जीवन साथी के साथ जीवन भर चलने की कसमें खाईं, इन सभी संबंधों में व्यस्तता जिंदगी की जद्‌दोजहद में अपने से पिछड़ जाने के भयवश क्या जो भावनात्मक आदान-प्रदान की कमी हो रही है इससे संबंधों के प्यार रूपी बंधन को कमजोर नहीं करते जा रहे हैं और इसी के कारण खुशी की कमी, तनाव आदि के शिकार हो रहे हैं । हम कितने बड़े बेवकूफ हैं कि चार दिन में मीडिया द्वारा पैदा हुआ एक नाम बाबा और स्वामी के रूप में सामने आते हैं और हम उनपर आस्था करने लगते हैं । और उपरोक्‍त जिन संबंधों के साथ जीते हैं, जिनके साथ खून का रिश्ता है, जिन्हें हम बचपन से जानते हैं जैसे दोस्त यार, पड़ोसी इन पर विश्‍वास भी नहीं कर पाते । अगर इन संबंधों पर विश्‍वास की डोर बनाए रहें तो कतिपय हमें बहुरूपी बाबाओं पे आस्था की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि मानव मन बड़ा अजीब है जिसे ढंग से नहीं जानता अगर उनकी महिमामंडित करके उसके सामने रखा जाए उसके प्रति आस्था तो पाल लेता है लेकिन जिसे वह बचपन से जानता हो और उसके लिए अपने पूजनीय जैसे कार्य भी ये हो तो भी उसके प्रति आस्था नहीं जग पाती है । इसलिए हमें अपने ही रिश्‍तों में आस्था की सर्वाधिक जरूरत है जिन्हें हम जानते हैं उनपर विश्‍वास करें । जिन्हें हम जानते ही नहीं उस पर कैसे विश्‍वास कर सकते हैं, आस्था तो बहुत बड़ी बात है ।

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