
नियम स्वयं कार्य-करण का व्यापार है । कुछ पूर्व घटित कार्यों के अनुसार कुछ परवर्ती कार्य होते हैं । प्रत्येक पूर्ववर्ती का पना अनुवर्ती होता है । प्रकृति में ऐसा ही होता है । यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन आबद्ध है और इसलिए वह स्वतन्त्र नहीं है । नहीं, इच्छा स्वतन्त्र नहीं है । हो भी कैसे सकती है? किन्तु हम सभी जानते हैं, हम सभी अनुभव करते हैं कि हम स्वतन्त्र हैं । यदि हम मुक्त न हों, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा और न वह जीने लायक ही होगा । प्राच्य दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार किया, अथवा यों कहो कि इसका प्रतिपादन किया कि मन तथा इच्छा देश, काल एवं निमित्त के अन्तर्गत ठीक उसी प्रकार है, जैसे तथाकथित जड़ पदार्थ हैं । अतएव, वे कारणता की नियम में आबद्ध है । हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं, जो कुछ है, उन सबका अस्तित्व देश और काल में है । सब कुछ कारणता के नियम से आबद्ध है । इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु है । अन्तर केवल स्पंदन की मात्रा में है । अत्यल्प गति से स्पंदनशील मन को जड़ पदार्थ के रूप में जाना जाता है । जड़ पदार्थ में जब स्पंदन की मात्रा का क्रम अधिक होता है, तो उसे मन के रूप में जाना जाता है । दोनों एक ही वस्तु है, और इसलिए अब जड़ पदार्थ देश, काल तथा निमित्त के बंधन में है, तब मन भी जो उच्च स्पंदनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है ।
प्रकृति एकरस है । विविधता अभिव्यक्ति में है । ‘नेचर’ के लिए संस्कृत शब्द है प्रकृति, जिसका व्युत्पत्त्यात्मक अर्थ है विभेद । सब कुछ एक ही तत्व है, लेकिन वह विविध रूपों में अभिव्यक्त हुआ है । मन जड़ पदार्थ बन जाता है और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है । यह केवल स्पंदन की बात है । इसपात का एक छड़ लो और उसे इतनी पर्याप्त शक्ति से आघात करो, जिससे उसमें कम्पन आरम्भ हो जाय । तब क्या घटित होगा? यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाय तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनि, भनभनाहट की ध्वनि । शक्ति की मात्रा बढ़ा दो, तो इसपात का छड़ प्रकाशमान हो उठेगा तथा उसे और अधिक बढ़ाओ, तो इसपात बिल्कुल लुप्त हो जायेगा । वह मन बन जायेगा । एक अन्य दृष्टान्त लो- यदि मैं दस दिनों तक निराहार रहूँ, तो मैं सोच न सकूँगा । मन में भूले-भटके, इने-गिने विचार आ जायेंगे । मैं बहुत अशक्त हो जाऊँगा और शायद अपना नाम भी न जान सकूँगा । तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ, तो कुछ ही क्षणों में सोचने लगूँगा । मेरी मन की शक्ति लौट आयेगी । रोटी मन बन गयी । इसी प्रकार मन अपने स्पंदन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को अभिव्यक्त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है ।
इनमें पहले कौन हुआ- जड़ वस्तु या मन, इसे मैं सोदाहरण बताता हूँ । एक मुरगी अंडा देती । अंडे से एक और मुरगी पैदा होती है और फिर इस क्रम की अनन्त श्रृंखला बन जाती है । अब प्रश्न उठता है कि पहले कौन हुआ, अंडा या मुरगी? तुम किसी ऐसे अंडे की कल्पना नहीं कर सकते, जिसे किसी मुरगी ने न दिया हो और न किसी मुरगी की कल्पना कर सकते हो, जो अंडे से न पैदा हुई हो । कौन पहले हुआ, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । करीब करीब हमारे सभी विचार मुरगी और अंडे के गोरखधंधे जैसे हैं । अत्यन्त सरल होने के कारण महान् से महान् सत्य विस्मृत हो गये । महान् सत्य इसलिए सरल होते हैं कि उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता होती है । सत्य स्वयं सदैव सरल होता है । जटिलता मनुष्य के अज्ञान से उत्पन्न होती है ।
मनुष्य में स्वतन्त्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो आबद्ध है । वहाँ स्वतन्त्रता नहीं है । मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है । आत्मा नित्य मुक्त, असीम और शाश्वत है । मनुष्य की मुक्ति इसी आत्मा में है । आत्मा नित्य मुक्त है, किन्तु मन अपनी ही क्षणिक तंरगों से तद्रूपता स्थापित कर आत्मा को अपने से ओझल कर देता है और देश, काल तथा निमित्त की भूलभुलैया -माया में खो जाता है । हमारे बंधन का कारण यही है । हम लोग सदा मन से तथा मन के क्रियात्मक परिवर्तनों से अपना तादात्म्य कर लेते हैं । मनुष्य का स्वतन्त्र आत्मा में प्रतिष्ठित है और मन के बंधन के बावजूद आत्मा अपनी मुक्ति को समझते हुए बराबर इस तथ्य पर बल देती रहती है, ‘मैं मुक्त हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ !’ यह हमारी मुक्ति है । आत्मा-नित्य मुक्त, असीम और शाश्वत- युग युग से अपने उपकरण मन के माध्यम से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती आयी है । तब प्रकृति से मानव का क्या सम्बन्ध है/ निकृष्टतम प्राणियों से लेकर मनुष्यपर्यन्त आत्मा प्रकृति के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करती है व्यक्त जीवन के निकृष्टतम रूप में भी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति अंतर्भूत है और विकास कही जानेवाली प्रक्रिया के माध्यम से वह बाहर प्रकट होने का उद्योग कर रही है ।
विकास की सभी प्रक्रिया अपने को अभिव्यक्त करने के निमित्त आत्मा का संघर्ष है । प्रकृति के विरूद्ध यह निरंतर चलते रहनेवाला संघर्ष है । मनुष्य आज जैसा है, वह प्रकृति से अपनी तद्रूपता का नहीं, वरन् उससे अपने संघर्ष का परिणाम है । हम यह बहुत सुनते हैं कि हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य करके और उससे समस्वरित होकर रहना चाहिए । यह भूल है । यह मेज, यह घड़ा, खनिज पदार्थ, वृक्ष सभी का प्रकृति से सामंजस्य है । पूरा सामजस्य है, कोई वैषम्य नहीं । प्रकृति से सामंजस्य का अर्थ है गतिरोध, मृत्यु । आदमी ने यह घर कैसे बनाया? प्रकृति से समन्वित होकर? नहीं । प्रकृति से लड़कर बनाया । मानवीय प्रगति प्रकृति के साथ सतत संघर्ष से निर्मित हुई है, उसके अनुसरण द्वारा नहीं ।
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