Wednesday, November 18, 2009
2012 में प्रलय की भविष्यवाणी एक कोरी कल्पना
आये दिन दुनिया की समाप्ति एवं प्रलय की भविष्यवाणियाँ तो लोगों के मन में भय व्याप्त करती रहती हैं, पिछले दिनों 2012में दुनिया समाप्ति की खबर से लोगों के मन में डर तो बना ही हुआ है साथ ही समय-समय पर प्राकृतिक आपदाओं को लोग 2012 की भविष्यवाणी से जोड़ कर देखने लगे हैं और भयग्रस्त हो गये हैं। वैसे ऋग्वेद व पुराणों के अनुसार सौर-मंडल के किसी भी ग्रह पर जीवन की उत्पत्ति से प्रलय तक के समय को चार युगों में बाँटा गया है । पहला युग सतयुग जिसकी आयु 17,28000वर्ष मानी गयी है । इसके बाद त्रेतायुग की आयु 12,96000मानी गयी है और उसके बाद द्वापर युग की आयु 8,64000वर्ष मानी गयी है और द्वापर युग के भगवान कृष्ण का जन्म लगभग 5000वर्ष पूर्व हुआ था और पौराणिक कहानी के अनुसार युधिष्ठिर के पोते राजा परीक्षित के समय से कलयुग प्रारम्भ हुआ । इस प्रकार पौराणिक कथा के और ऋग्वेद के अनुसार भी अभी 4,25000वर्ष कलयुग के शेष हैं । जहाँ तक दुनिया की समाप्ति की भविष्यवाणियाँ हैं तो मैं एक बात बहुत ही मजबूती से कहना चाहूंगा की अभी पृथ्वी के कई हजार वर्ष शेष हैं । इसे समझने के लिए हमें अपने सौर-मण्डल का संक्षिप्त रूप समझना होगा । हमारे सौर -मण्डल में सूर्य के चारों ओर एक निश्चित कक्षा में भ्रमण करने वाले नौ ग्रहों के साथ-साथ उनके उपग्रह भी हैं । ये सभी ग्रह सूर्य के ही अंग हैं । जो सूर्य की अक्षीय गति से अन्तः-आणविक ऊर्जा के ह्रास के कारण अस्तित्व में आये हैं । सूर्य तथा अन्य ग्रहों के मध्य कार्यरत अभिकेन्द्रीय बल एवं अपने सौर मण्डल के बाहर से कार्यरत उत्केन्द्रीय बल के कारण ये सभी अपने अक्ष पर भ्रमण करते हैं । एक सौर-मंडल में एक समय में सिर्फ एक ही ग्रह पर जीवन संभव है जो कि वर्तमान पृथ्वीय कक्षा में है । इसी कक्षा में वे सभी कारक मौजूद हैं जो जीवन के लिए आवश्यक हैं, जैसे ऑक्सीजन, तापमान, जीवद्रव्य, ओजोन की परत, जल आदि । पृथ्वी की कक्षा से बाहर का तापमान इतना कम है वहाँ जीवन संभव नही है इसी तरह बुद्ध तथा शुक्र ग्रह पर तापमान इतना अधिक है जो जीवन के लिए उपयुक्त नहीं है । लेकिन यह पृथ्वी के निरन्तर अक्षीय गति से ह्रास अन्तरा आणविक ऊर्जा के कारण सूर्य और पृथ्वी के बीच कार्यरत अभिकेन्द्रीय बल धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है और सौर मण्डल के बाहर से कार्यरत उत्केन्द्रीय बल मजबूत हो रहा है जिससे पृथ्वी अपनी कक्षा से धीरे-धीरे बाहरी कक्षा की ओर खिसक रही है । यही स्थिति हमारी पृथ्वी को धीरे-धीरे जीवन के अनुकूल वातावरण की समाप्ति की ओर ले जा रही है और यही प्रक्रिया हमारे सौर मण्डल में विद्यमान सभी ग्रहों के बीच कार्यरत है । इसी उपरोक्त सौर मण्डल की निश्चित प्रक्रिया के तहत आज से काफी समय पूर्व कभी मंगल भी पृथ्वी वाले कक्षा में भ्रमण करता था । और तब मंगल पर भी जीवन विद्यमान था लेकिन समय के साथ उस अभिकेन्द्रीय बल के सापेक्ष उत्केन्द्रीय बल का मजबूत होने के कारण मंगल मिलकर अपने वर्तमान कक्षा में भ्रमण कर रहा है जिससे उस पर तापमान घटने से जीवन की समाप्ति हुई । इसी प्रक्रिया के तहत पृथ्वी पर जीवन की समाप्ति उसकी सूर्य से अभिकेन्द्रीय बल के धीरे-धीरे कमजोर होने के कारण और सूर्यसे दूरी बढ़ने एवं उस पर तापमान की कमी के कारण ही संभव है जिसे होने में अभी कई लाख वर्ष शेष हैं ।क्योंकि पृथ्वी की समाप्ति के लिए दो बात लिखित रूप से वैज्ञानिक आधार पर होना चाहिए । पहला यह कि पृथ्वी की अक्षीय गति से ह्रास अन्तरा आणविक ऊर्जा से पृथ्वी की आणविक सह-संजन बल का कमजोर होना, दूसरा इसके द्वारा एक और दूसरे उपग्रह की उत्पत्ति तभी पृथ्वी की एक बहुत बड़े हिस्से की समाप्ति एवं भौगोलिक परिवर्तन होना और इसमें अभी कम से कम लाखों वर्ष लग सकते हैं, क्योंकि अभी पृथ्वी आन्तरिक सह संजन बल काफी मजबूत है । यह बात अलग है कि हमारे सौर मंडल में 9ग्रहों में तीन-तीन ग्रहों का समूह है जो तीन अलग प्रकृति को सन्तुलित करते हैं । यह तीनों क्रमशः अग्नि, वायु एवं ठंडा (बर्फ) प्रकृति प्रतिनिधित्व करते हैं और ग्रहों के सन्तुलित संयोग से इन प्रवृत्तियों में सन्तुलन बना रहता है, जिससे वातावरण या प्रकृति संतुलित रहती है, परन्तु हर 9वर्ष में ग्रहों की आपसी संयोग और स्थिति से किसी एक प्रकृति की प्रबलता बढ़ती है । इसमें उपरोक्त सारी बातें एक साथ कार्य करती हैं, जिससे बीच-बीच में प्रकृति का सन्तुलन बनता-बिगड़ता रहता है । इसे प्रलय का अनुमान लगाना गलत होगा । इस प्रकार उपरोक्त बातें यह सुनिश्चित करती हैं कि पृथ्वी पर जीवन की समाप्ति धीरे-धीरे तापमान घटने से होगी । परन्तु अभी पृथ्वी पर काफी तापमान है । जहाँ तक पृथ्वी फटने की बात है तो आज से हजारों वर्ष पूर्व पृथ्वी पर सूखा पड़ा, पृथ्वी फटना आम बात थी यह प्रक्रियायें ज्यादा होती थीं, क्योंकि तब पृथ्वी का तापमान ज्यादा था । लेकिन हम आधुनिकता एवं भौतिकता के कारण ज्यादा कमजोर हो गये हैं और छोटी-छोटी प्राकृतिक आपदाओं से सशंकित हो गये हैं । इस प्रकार मैं कहना चाहूंगा कि घबराने की कोई बात नहीं है यह सब ग्रहों की असन्तुलित स्थिति के कारण प्राकृतिक घटना है ।
Thursday, November 5, 2009
आज का आजाद भारत
सच में हम सभी मानते हैं कि हम आजाद हैं । आखिर ये आजादी ही तो है कि हम सब अपने विचारों को सर्वोपरि रखते हैं । अपनी व्यवस्थाओं के अनुकूल चलते हैं । हम भूल जाते हैं कि हम आजाद देश के नागरिक हैं पर हम अपनी जिम्मेदारियों से कैसे आजाद हैं । जबकि कोई बच्चा किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करता है तो जीवन की नई जिम्मेदारियों की तरफ उसके कदम बढ़ते हैं । देखा जाय तो वह बचपन से ही कल्पना करता है कि उसके परिजन अभिभावक व आचार्यगण सभी उसे सलाह देते हैं कि यह करो, वह न करो, ऐसे उठो, वैसे बैठो, आगे बैठना है । बच्चे कल्पनाएँ करते हैं कि हम बड़े होंगे तो कितने आजाद होंगे । हम भी अपने अभिभावक की तरह अपनी मर्जी से आ-जा सकेंगे लेकिन वही बच्चे अभिभावक बनते ही उनके बच्चों की जिम्मेदारियाँ, उनके परिवार की जिम्मेदारियाँ उनको गुलाम बनाना शुरू कर देती हैं । फिर हमें इतने बड़े देश की जिम्मेदारियाँ रूपी गुलामी का अहसास क्यूँ नही है? क्यूँ हम सभी इतने कर्तव्यविमुख होते जा रहे हैं? गुलाम भारत के समय आजादी का संघर्ष कर रहे सेनानियों ने यह नारा जरूर लगाया था कि हम आजाद होंगे । हमारा भारत आजाद होगा, पर उनके नारों का भाव हमने, यही समझा था कि हम अपने मन के मालिक हो गए? हम इतने कर्तव्यविमुख और विवेकहीन हो गए हैं कि चंचल मन के आगे बेकाबू होकर कहीं अपराध, कहीं बलात्कार. कहीं डकैती, कहीं भ्रष्टाचार इन सबसे कभी निकलने के बारे में हम सोचते ही नहीं ।
इसका मुख्य कारण यही है कि हम वाकई बहुत आजाद हो गए हैं । हमारा मन इतना आजाद हो चुका है कि भावना शून्य हो चुका है । जिससे हम अपने आगे न तो अपना देश देख पाते हैं और न ही समाज देख पाते हैं । आजादी का कदाचित् यह मतलब नहीं था । आजादी का सिर्फ मतलब तो यही था कि अपनी मातृभूमि को दूसरों के हाथों से छुड़ाकर उसकी सेवा रूपी जिम्मेदारी की गुलामी अपनावें हम, पर ऐसा नहीं हो सका । आज इस मातृभूमि को इस बात की विशेष जरूरत है कि आनेवाली पीढ़ी और नौनिहाल आजादी का वास्तविक मतलब समझे क्यूँकि जब हम किसी चीज के संचालन की जिम्मेदारी लेते हैं तो हम पहले से ज्यादा जिम्मेदारी की गुलामी में जकड़ जाते हैं । इसमें जिम्मेदार व्यक्ति का प्यार और समर्पण जुड़ा होता है । आशा करते हैं कि देश के इस ६३ वें वर्ष में प्रवेश के उपरान्त हमारे नौजवान इस आजादी के वास्तविक अर्थ को समझेंगे और अपने देश को विश्वपटल पर लाने हेतु कर्तव्यपूर्ति की मिशाल कायम करेंगे ।
इसका मुख्य कारण यही है कि हम वाकई बहुत आजाद हो गए हैं । हमारा मन इतना आजाद हो चुका है कि भावना शून्य हो चुका है । जिससे हम अपने आगे न तो अपना देश देख पाते हैं और न ही समाज देख पाते हैं । आजादी का कदाचित् यह मतलब नहीं था । आजादी का सिर्फ मतलब तो यही था कि अपनी मातृभूमि को दूसरों के हाथों से छुड़ाकर उसकी सेवा रूपी जिम्मेदारी की गुलामी अपनावें हम, पर ऐसा नहीं हो सका । आज इस मातृभूमि को इस बात की विशेष जरूरत है कि आनेवाली पीढ़ी और नौनिहाल आजादी का वास्तविक मतलब समझे क्यूँकि जब हम किसी चीज के संचालन की जिम्मेदारी लेते हैं तो हम पहले से ज्यादा जिम्मेदारी की गुलामी में जकड़ जाते हैं । इसमें जिम्मेदार व्यक्ति का प्यार और समर्पण जुड़ा होता है । आशा करते हैं कि देश के इस ६३ वें वर्ष में प्रवेश के उपरान्त हमारे नौजवान इस आजादी के वास्तविक अर्थ को समझेंगे और अपने देश को विश्वपटल पर लाने हेतु कर्तव्यपूर्ति की मिशाल कायम करेंगे ।
Wednesday, November 4, 2009
धर्म और विज्ञान का अंतर्द्वन्द
अक्सर धर्म और विज्ञान में अंतर्द्वन्द सुनने को मिलता है । पिछले दिनों एक न्यूज चैनल पर धार्मिक जानकारों एवं वैज्ञानिकों के बीच में एक डिबेट आयोजित किया गया था कि “क्या भगवान का अस्तित्व है?" क्या धर्म समाज की बुराईयों और लोगों की समस्याओं को सुलझा पाने में समर्थ है? इस दिशा में विज्ञान ने क्या अच्छा कार्य किया? देखा जाय तो इस परिचर्या में दोनों ही पक्ष के लोग लड़ते नजर आए लेकिन दोनों में से कोई भी पक्ष एक दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पाए । यहाँ सबसे पहले यह तय होना जरूरी है कि पहले विज्ञान आया या धर्म ।
निःसंदेह इस पूरी सृष्टि का हर जीव भावनाओं की मिट्टी से बना हुआ है । भावना ही सुख या दुख प्रदान करती है । जब कभी भी सामान्य तौर पर सबके अनुकूल या सबके प्रतिकूल कोई भी चीज होती है वहीं पर जीवनशैली में नियमावली की आवश्यकता का जन्म होता है । तभी संस्कृति की उत्पत्ति होती है और इसी संस्कृति से धर्म का निर्माण होता है । या यूँ कहें धर्म और संस्कृति एक दूसरे के परिपूरक हैं । चूँकि सृष्टि का निर्माण, सृष्टि में पल रहे जीवों का निर्माण पूरी प्राकृतिक व्यवस्था पर निर्भर करती है इसलिए हमारी सारी संस्कृति या धर्म प्रकृति के नियमों के अनुरूप होना स्वाभाविक है । यह बात अलग है कि भौतिक कारणों से या कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा कुछ आडम्बर धर्म के नाम पर प्रकृति के नियमों के विरूद्ध भी होता है जिसे धर्म का चोला पहनाया जाता है । जैसा कि हमारा धर्म कहता है कि कण-कण में ईश्वर का वास है । पूर्ण सृष्टि के संचालक ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं । जहाँ तक आज की तारीख में वैज्ञानिक आधार पर देख रहे हैं कि दृष्टिगत आधार पदार्थ मात्र है जिसका मूलकण परमाणु है तथा परमाणु की संरचना तीन सूक्ष्म ऊर्जाओं से बनी है । इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन । इन तीनों की संयुक्त ऊर्जा से ही पदार्थ की संरचना हुई है । और यही संरचना हमारे, सौरमंडल की भी है और देखा जाय तो हमारे धर्म में ब्रह्मा, विष्णु, महेश के गुणों का जो बखान किया गया है वह प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन जैसा ही है । अतः यह साबित होता है कि धर्म की उत्पत्ति से पहले ही धर्म के आधार पर प्रकृति की गहराइयों को खंगालते हुए इंसान की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान का जन्म हुआ । बल्कि हम यह कहें कि विज्ञान को विज्ञान शब्द का नाम तो बहुत बाद में मिला लेकिन हमारे दिनचर्या और हमारे संस्कृति में बहुत से नियमों का पालन या प्राकृतिक सुविधाओं का उपयोग किया गया है जो पूर्णतः वैज्ञानिक है ।
विज्ञान हमसे, जीवन मात्र से या प्रकृति से परे नहीं है । वैज्ञानिक आज भी जीवन की उत्पत्ति का सही आधार स्पष्ट करने में असफल ही कहे जाएंगे और अपने सौर मंडल की संरचना में पृथ्वी के जीवन से परे किसी अन्य सौर मंडल की संरचना या किसी अन्य ग्रह पर जीवन की बात हो तो उनकी सारी बातें काल्पनिक आधार पर ही सामने आती हैं और जो कुछ भी सामने आता है चाहे वह धर्म में किसी भी आधार पर हो, पहले ही बताई जा चुकी बात होती है । मंगल पर जीवन की बात बार-बार सुनने को मिलती है । यह बात स्पष्ट है कि हमारे सौरमंडल में सूर्य के चारों ओर जो ग्रहों की परिक्रमा हो रही है वह अभिकेन्द्रीय और उत्केन्द्रीय बल के कारण व्यवस्थित तो चल रहे हैं परन्तु हर ग्रह अपनी अच्छी गति के कारण आंतरिक आणविक ऊर्जा के ह्रास का शिकार हो रहा है जिससे ग्रह अपने बाहरी कक्षा की तरफ खिसक रहे हैं और उत्केन्द्रिय बल मजबूत हो रहा है । इस सिद्धान्त की बात करें तो मंगल कभी न कभी आज से हजारों साल पहले इस पृथ्वी वाले कक्षा में परिक्रमा कर रहा था, जिस कक्षा में जीवन के लिए पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन है जो द्रव्य तापमान इत्यादि थे किन्तु उत्केन्द्रीय बलों को मजबूत होने के साथ-साथ मंगल सूर्य से दूर होता गया और तापमान घटता गया इसलिए हम कह सकते हैं कि मंगल पर जीवन था । यह बात धर्मग्रंथों और पौराणिक कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती है वहीं पर ग्रह की आयु और सौरमंडल की आयु तक निर्धारित की गई है । वहाँ स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एक प्लैनेट की आयु को मनुअंतर कहा गया है और उसको चार युगों में बाँटा गया है । और एक सौरमंडल की आयु को महाकाल बोला गया है । ठीक इसी प्रकार धर्मों में मुख्यतः जितने व्रतों का पालन कराया गया है मुख्य तौर पर नवरात्र हो या अन्य कोई पूर्णिमा का व्रत हो आप देखेंगे कि सारे नवरात्र ऋतु परिवर्त्तन के समय में होते हैं एक ऋतु से दूसरे ऋतु में शरीर को प्रवेश कराने के लिए तथा शरीर को उसके अनुकूल बनाने के लिए नवरात्रि व्रत का चलन किया गया है ।
यह बात दीगर है कि उसके पीछे देवी या आस्था को मुख्य तौर पर प्रसारित इसलिए किया गया है कि व्यक्ति आस्थावान् होकर सही ढंग से नियमों का पालन करें और उससे स्वास्थ्य का लाभ उठावे क्योंकि आस्था या भगवान का भय तो इंसान से कुछ भी पालन करा सकता है लेकिन इंसान को वास्तविक सच्चाई बताई जाएगी तो वह अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पाएगा और शुद्ध नहीं कर पाएगा और बिना मन शुद्धि के स्वास्थ्य लाभ नहीं लिया जा सकता । इसी प्रकार पूर्णिमा का जो व्रत है उसके पीछे तथ्य यह है कि पूर्णिमा में चंद्रमा पूर्णरूप से प्रभावी होता है और पृथ्वी विशेषकर जल पर प्रभावी है जैसा कि समुद्र में ज्वार भाटा देखने को मिलता ही है । जैसा कि आप जानते हैं इंसान के अन्दर ८५% पानी होता है और इस पर चंद्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्त में न्यूरॉन सेल्स काफी क्रियाशील होते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान भावविभोर होता है खासकर उन इंसानों के लिए ज्यादा प्रभावी होता है जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है । अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति की भोजन करने के बाद नशा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है । यही कारण है कि पूर्णिमा के समय ऐसे व्यक्तियों पर चंद्रमा ज्यादा कुप्रभावी होता है । इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखा गया है । ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हमारे धर्म में पूर्णतः प्राकृतिक हैं साथ ही साथ विज्ञान की उत्पत्ति धर्म के बाद है धर्म से पहले नहीं । हम यह कह सकते हैं कि सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से इंसान को मजबूत होने के बाद भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान शब्द नाम दिया गया है जबकि इंसान के जीवन की उत्पत्ति के साथ-साथ हर कदम हर क्षण पर उसके अंदर संस्कृति, विज्ञान आदि का विकास निरंतर होता रहा है हम यह भी कह सकते हैं कि विज्ञान उसके संस्कृति का ही एक अंग है जो भौतिक रूप से काफी उत्कृष्ट रूप ले लिया है । जहाँ तक भगवान की बात है तो यह प्रकृति ही भगवान है । इस प्रकृति का वह सूक्ष्मतम आधार जो हम ऊर्जा के नाम से जानते हैं (इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन, न्यूट्रॉन) धार्मिक आधार पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश या फिर हम कह सकते हैं तीन शक्ति प्लस माइनस और न्यूट्रल । इन्हें जिस नाम से पुकारें यही हमारे सृष्टि या जीवन के आधार हैं । हाँ साथ ही यह भी कहेंगे कि यह एक व्यवस्थित तंत्र है जो हमारे जीवन को व्यवस्थित ढंग से संतुलित किए हुए है । अच्छा या बुरा होना उनकी व्यवस्थाओं में सामाहित है । वह किसी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है । भगवान हमारी द्वारा ही बनाया गया एक आस्थावान शब्द है, जिससे हम भावनात्मक रूप से ऊर्जावान होते हैं जिसके समक्ष हम अपने आप से ही बात करते हैं और अपने आपको ही प्रेरणा देते हैं । यह शब्द हमारे जीवन में ना रहे तो हम अपने आप को बहुत ही असहाय और अकेला महसूस करेंगे । क्योंकि हम मानते हैं कि हमें कोई व्यवस्थित रूप से चला रहा है और सत्य है कि जिन शक्तियों का जिक्र हमने उपरोक्त पंक्तियों में किया है वही हमे चला रहा है । यह वैज्ञानिक रूप में उतना ही प्रमाणित है जितना की धार्मिक आधार पर चाहे हम उसे भगवान कहें या हम काल्पनिक आधार पर भगवान का कोई अलग रूप अपने मनःमस्तिष्क में बनावें, परन्तु हम सभी के मन में यह नाम जीवित रहता है जिससे हम बात भी करते हैं शिकायत भी करते हैं आग्रह भी करते हैं और अपनी सारी अच्छाई- बुराई उसको समर्पित करते हुए अपने को दोषमुक्त कर नई ऊर्जा का संचार करते हैं ।
Saturday, October 31, 2009
जीवन की दौड़ में ‘मैं’
जिन्दगी की इस भागती दौड़ में सभी अपनी-अपनी निर्धारित पंक्ति में दौड़ रहे हैं । इस दौड़ में एक पंक्ति में “मैं” भी शामिल हूँ । एक समय ऐसा था कि जिन्दगी की इस दौड़ में मेरी भी हिस्सेदारी थी लेकिन मैं बार-बार पीछे छूट जाता रहा और इस कारण मैं स्वयं की स्थिति का आंकलन करना ही भूल गया था, क्योंकि दिलो-दिमाग में कहीं कुछ ऐसा बैठ गया था कि पंक्ति का अगला छोर कहाँ है इसका मैं अनुमान भी नहीं लगा पाता था और हमेशा पंक्ति के पिछले छोर पर स्वयं को पाता था । शायद उन दिनों मेरा आत्मविश्वास समाप्त हो गया था ; शायद मेरे अंदर से मेरा ‘मैं’ भी खत्म हो चुका था । यह वहीं ‘मैं’ है जो जीवन का अहसास कराता है । जब मनुष्य का आत्मबल पैदा होता है तब उसके अन्दर से यह ‘मैं’ उसके अस्तित्व से परिचित कराता है । और उसे जीवन लीला में शामिल होने का अहसास कराता है । अकस्मात् एक वक्त ऐसा आया जिसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि मेरे इस पंक्ति में शामिल होने का क्या तात्पर्य है? जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं उसे इस पंक्ति में शामिल होने की क्या जरूरत है? इस वक्त ने मेरे अन्दर ‘मैं’ को जागृत कर मुझे अपने वजूद से परिचित कराया । उस वक्त ने मुझे बताया कि मैं अपनी पंक्ति में पीछे रहकर भी अपने स्थान की महत्ता से परिचित नहीं था और मेरे मन में नये-नये ख्याल उत्पन्न होने लगे । मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे से भवितव्यता का तात्पर्य यह भी हो सकता है कि मैं अपने से अगले धावक के पिछड़ेपन को ढाँप सकूँ । मैंने पाया कि अगला धावक पिछड़ेपन के कारण जब कभी उत्साहित हो जाता था तब उसके मन का यह ‘भय’ कि वह कहीं मुझसे भी पिछड़ न जाये, उसके अन्दर के आत्मबल को जागृत कर देता था । इससे उसकी गति तेज हो जाती थी । इस प्रकार उसने वह पिछड़ेपन को छोड़कर स्वयं का आत्मबल बनाये रखा था इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने अपने पीछे मुड़कर देखा तो पता लगा कि इस पंक्ति का पिछला भी कोई छोर नहीं है । फिर, मैं ही अकेले इस दौड़ में पीछे नहीं था बल्कि मेरे पीछे बहुत सारे लोग दिखायी दे रहे थे ।
इस दौड़ में कभी कोई थककर बैठ जा रहा था, कोई गिर जा रहा था । परन्तु चाहे जो भी हो, जब तक उनके अन्दर का मैं उनकी हिम्मत, ताकत, जोश के रूप में जागृत था वे दौड़ रहे थे । इस दौड़ में दौड़ने वाले सभी इस दौड़ को जीतना चाहते थे जबकि कोई भी इस दौड़ की जीत से परिचित ही नहीं था । जिस दौड़ का आरंभ मैं से शुरू होकर मैं की ही तलाश में खत्म हो जाता है उस दौड़ की जीत क्या हो सकती है? आखिर हम सब कहाँ दौड़े जा रहे हैं क्या इस दौड़ का अन्त भी है? कहीं यह दौड़ जीवन समाप्ति के उपरांत भी चलती तो नहीं रहेगी । यदि ऐसा है तो फिर उसकी स्थिति क्या होगी जिस दौड़ के आरंभ और अन्त का कोई ज्ञान ही नहीं । उसमें हम कहाँ दौड़े चले जा रहे हैं हमें यह भी तो नहीं पता कि हम दौड़ते-दौड़ते कहां पहुंचेंगे । इस दौड़ में हम स्वयं ही दौड़ हैं या हमें दौड़ाने में कही किसी अज्ञात शक्ति का हाथ तो नहीं है? अगर ऐसा है तो फिर हम किस लिये दौड़ रहे हैं आखिर अपने सहधावक से आगे निकलने का प्रयास हमें कहां ले जाना चाहता है? सुबह के साथ हर इंसान नयी उमंग के साथ दौड़ना आरंभ करता है और रात होने पर ही विश्राम करता है और एक दिन इस निरन्तर दौड़ के साथ ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है । उसके जीवन के आरंभ होने से जीवन की सामाप्ति तक केवल उसकी शारीरिक बनावट में ही अन्तर होता है । किन्तु जिस शरीर के साथ है उसके शरीर के सिवाय उसके साथ कुछ भी तो नहीं जाता है फिर वह क्यूँ दौड़ रहा है किस लिये दौड़ रहा है जो कोई भी आप है उसे इस दौड़ में शामिल होना है क्योंकि यह जीवन ही दौड़ है ।
ऐसा लगता है कि हम दौड़ तो रहे हैं परन्तु हमें दौड़ाने वाली कोई ऐसी शक्ति है जो हमारे जीवन को अपने अनुसार समय-समय पर संचालित करती है; वही इस दौड़ में पंक्ति, स्थिति, व हमारी सोच आदि का निर्धारण करती है । सभी इस दौड़ में सफल होना चाहते हैं लेकिन इस दौड़ की सफलता क्या है यह किसी को भी पता नहीं है या फिर भ्रम वश झूठी सफलता के लिये दौड़ते चले जा रहे हैं । अचानक इस दौड़ में ही एक ऐसा मोड़ आया कि उसमें मुझे एक पुराना सहधावक मिला । एक समय था कि वह काफी तेज तथा काफी साहसी धावक था लोगों को उस पर बड़ा नाज था, जिसकी सफलता को देखकर लोग काफी सफल भविष्य की आकांक्षा किया करते थे, परन्तु अब वह सहधावक वो नहीं रह गया था । क्या हो गया था उसे? उसका वह पुराना हौसला कहाँ चला गया था? उसकी वर्तमान दशा को देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । मुझे यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह वही पुराना धावक है जिसकी स्थिति आज ऐसी दिखाई दे रही है । कुछ और आगे बढ़ने पर एक सफल धावक की सफलता की चर्चा सुनने को मिली । वह धावक, अपनी ही पंक्ति का था शायद हमारी पंक्ति में ही हमसे बहुत पीछे था पर न जाने कब यूं वह आगे निकला कि वह सफलता की बुलन्दियों को प्राप्त कर गया । मेरे मन में एक सवाल उठा कि जिसकी कल्पना हमने कभी की ही नहीं फिर वह इस सफलता को कैसे प्राप्त कर लिया और अचानक कहां पहुंच गया । यह उसी धावक की क्षमता कही जायेगी या भवितव्यता ? अन्तर्मन से बार-बार पूछने पर ऐसा लगा कि यदि यह उस धावक की क्षमता थी तो मेरा पिछलाधावक इससे कहीं योग्य था और यदि भवितव्यता थी तो इस भवितव्यता का निर्धारण कैसे होता है? इन सब सवालों का जवाब जानने के लिये मेरा मन काफी उत्सुक होने लगा । मैं जानना चाहता था कि इस जीवन की दौड़ क्या है? इसका आरंभ और इसका अन्त क्या है? मेरी यह जिज्ञासा न जाने कब दैवज्ञता में परिवर्तित हो गई कि इसे जानने की उत्सुकता मे ‘मैं’ न जाने कब लोगों के भाग्यों की विवेचना करने लगा इसका हमें पता भी न लगा । और फिर जिन्दगी के इस दौड़ में दैवज्ञ बनकर दौड़ना बड़ा अजीब लगने लगा । ऐसा लगता था कि मैं दौड़ तो रहा हूँ लेकिन इस दौड़ से मेरी स्थिति में, मेरे वजूद में, मेरी अपनी भागीदारी नजर नहीं आ रही थी परन्तु इस जीवन लीला में शामिल होने के कारण मेरे अन्दर भी नयी-नयी आकांक्षायें सपने मेरे अन्दर भी जन्म लेते हैं ।
बड़ी ही अजीब स्थिति होती है इन दैवज्ञों की । कभी तो यह सभी की तरह खुद की वास्तविकता को भूलकर सपने, आकांक्षायें और न जाने क्या-क्या अपने अंतर्मन में सजा लेते हैं और कभी मैं को प्राप्त कर लेने पर या मैं की वास्तविकता से परिचित होने पर अचानक इनके होश उड़ जाते हैं मानो पैरों तले जमीन ही खिसक गयी हो । ये दूसरों को तो बखूबी समझ लेते हैं पर अपनी हर खराब परिस्थिति या दुखद स्थिति में अपने से यह कहना कि यह तो मेरी भवितव्यता है या अपने को समझा पाना कितना कठिन होता है । क्योंकि हम अपने साथ अपने मैं के वजूद को नहीं छोड़ पाते हैं और यही मैं भरी आसक्ति ही मुझे दुख और सुख भरी परिस्थितियों से जोड़ती है । इस प्रकार हम यहाँ यह भी कहेंगे कि जब हम किसी विषम परिस्थिति के साथ संघर्ष कर रहे होते हैं तो वहाँ खुद के वजूद से संघर्ष कर रहे होते हैं क्योंकि मैं है तो मेरी सुख-दुख भरी परिस्थितियां हैं । और मैं नहीं तो फिर ईश्वर द्वारा रचित मेरी भवितव्यता है तब जो भी है उसी का है । यह शाश्वत सत्य है, इसलिए हार-जीत, सुख-दुख आदि हर स्थिति में ईश्वरीय इच्छा मानकर खुश रहने की चेष्टा करना चाहिए । क्योंकि इस जीवन की दौड़ में हारते भी हमीं हैं और जीतते भी हमीं हैं । अतः हमेशा खुश रहने की चेष्टा करना चाहिए ।
इस दौड़ में कभी कोई थककर बैठ जा रहा था, कोई गिर जा रहा था । परन्तु चाहे जो भी हो, जब तक उनके अन्दर का मैं उनकी हिम्मत, ताकत, जोश के रूप में जागृत था वे दौड़ रहे थे । इस दौड़ में दौड़ने वाले सभी इस दौड़ को जीतना चाहते थे जबकि कोई भी इस दौड़ की जीत से परिचित ही नहीं था । जिस दौड़ का आरंभ मैं से शुरू होकर मैं की ही तलाश में खत्म हो जाता है उस दौड़ की जीत क्या हो सकती है? आखिर हम सब कहाँ दौड़े जा रहे हैं क्या इस दौड़ का अन्त भी है? कहीं यह दौड़ जीवन समाप्ति के उपरांत भी चलती तो नहीं रहेगी । यदि ऐसा है तो फिर उसकी स्थिति क्या होगी जिस दौड़ के आरंभ और अन्त का कोई ज्ञान ही नहीं । उसमें हम कहाँ दौड़े चले जा रहे हैं हमें यह भी तो नहीं पता कि हम दौड़ते-दौड़ते कहां पहुंचेंगे । इस दौड़ में हम स्वयं ही दौड़ हैं या हमें दौड़ाने में कही किसी अज्ञात शक्ति का हाथ तो नहीं है? अगर ऐसा है तो फिर हम किस लिये दौड़ रहे हैं आखिर अपने सहधावक से आगे निकलने का प्रयास हमें कहां ले जाना चाहता है? सुबह के साथ हर इंसान नयी उमंग के साथ दौड़ना आरंभ करता है और रात होने पर ही विश्राम करता है और एक दिन इस निरन्तर दौड़ के साथ ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है । उसके जीवन के आरंभ होने से जीवन की सामाप्ति तक केवल उसकी शारीरिक बनावट में ही अन्तर होता है । किन्तु जिस शरीर के साथ है उसके शरीर के सिवाय उसके साथ कुछ भी तो नहीं जाता है फिर वह क्यूँ दौड़ रहा है किस लिये दौड़ रहा है जो कोई भी आप है उसे इस दौड़ में शामिल होना है क्योंकि यह जीवन ही दौड़ है ।
ऐसा लगता है कि हम दौड़ तो रहे हैं परन्तु हमें दौड़ाने वाली कोई ऐसी शक्ति है जो हमारे जीवन को अपने अनुसार समय-समय पर संचालित करती है; वही इस दौड़ में पंक्ति, स्थिति, व हमारी सोच आदि का निर्धारण करती है । सभी इस दौड़ में सफल होना चाहते हैं लेकिन इस दौड़ की सफलता क्या है यह किसी को भी पता नहीं है या फिर भ्रम वश झूठी सफलता के लिये दौड़ते चले जा रहे हैं । अचानक इस दौड़ में ही एक ऐसा मोड़ आया कि उसमें मुझे एक पुराना सहधावक मिला । एक समय था कि वह काफी तेज तथा काफी साहसी धावक था लोगों को उस पर बड़ा नाज था, जिसकी सफलता को देखकर लोग काफी सफल भविष्य की आकांक्षा किया करते थे, परन्तु अब वह सहधावक वो नहीं रह गया था । क्या हो गया था उसे? उसका वह पुराना हौसला कहाँ चला गया था? उसकी वर्तमान दशा को देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । मुझे यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह वही पुराना धावक है जिसकी स्थिति आज ऐसी दिखाई दे रही है । कुछ और आगे बढ़ने पर एक सफल धावक की सफलता की चर्चा सुनने को मिली । वह धावक, अपनी ही पंक्ति का था शायद हमारी पंक्ति में ही हमसे बहुत पीछे था पर न जाने कब यूं वह आगे निकला कि वह सफलता की बुलन्दियों को प्राप्त कर गया । मेरे मन में एक सवाल उठा कि जिसकी कल्पना हमने कभी की ही नहीं फिर वह इस सफलता को कैसे प्राप्त कर लिया और अचानक कहां पहुंच गया । यह उसी धावक की क्षमता कही जायेगी या भवितव्यता ? अन्तर्मन से बार-बार पूछने पर ऐसा लगा कि यदि यह उस धावक की क्षमता थी तो मेरा पिछलाधावक इससे कहीं योग्य था और यदि भवितव्यता थी तो इस भवितव्यता का निर्धारण कैसे होता है? इन सब सवालों का जवाब जानने के लिये मेरा मन काफी उत्सुक होने लगा । मैं जानना चाहता था कि इस जीवन की दौड़ क्या है? इसका आरंभ और इसका अन्त क्या है? मेरी यह जिज्ञासा न जाने कब दैवज्ञता में परिवर्तित हो गई कि इसे जानने की उत्सुकता मे ‘मैं’ न जाने कब लोगों के भाग्यों की विवेचना करने लगा इसका हमें पता भी न लगा । और फिर जिन्दगी के इस दौड़ में दैवज्ञ बनकर दौड़ना बड़ा अजीब लगने लगा । ऐसा लगता था कि मैं दौड़ तो रहा हूँ लेकिन इस दौड़ से मेरी स्थिति में, मेरे वजूद में, मेरी अपनी भागीदारी नजर नहीं आ रही थी परन्तु इस जीवन लीला में शामिल होने के कारण मेरे अन्दर भी नयी-नयी आकांक्षायें सपने मेरे अन्दर भी जन्म लेते हैं ।
बड़ी ही अजीब स्थिति होती है इन दैवज्ञों की । कभी तो यह सभी की तरह खुद की वास्तविकता को भूलकर सपने, आकांक्षायें और न जाने क्या-क्या अपने अंतर्मन में सजा लेते हैं और कभी मैं को प्राप्त कर लेने पर या मैं की वास्तविकता से परिचित होने पर अचानक इनके होश उड़ जाते हैं मानो पैरों तले जमीन ही खिसक गयी हो । ये दूसरों को तो बखूबी समझ लेते हैं पर अपनी हर खराब परिस्थिति या दुखद स्थिति में अपने से यह कहना कि यह तो मेरी भवितव्यता है या अपने को समझा पाना कितना कठिन होता है । क्योंकि हम अपने साथ अपने मैं के वजूद को नहीं छोड़ पाते हैं और यही मैं भरी आसक्ति ही मुझे दुख और सुख भरी परिस्थितियों से जोड़ती है । इस प्रकार हम यहाँ यह भी कहेंगे कि जब हम किसी विषम परिस्थिति के साथ संघर्ष कर रहे होते हैं तो वहाँ खुद के वजूद से संघर्ष कर रहे होते हैं क्योंकि मैं है तो मेरी सुख-दुख भरी परिस्थितियां हैं । और मैं नहीं तो फिर ईश्वर द्वारा रचित मेरी भवितव्यता है तब जो भी है उसी का है । यह शाश्वत सत्य है, इसलिए हार-जीत, सुख-दुख आदि हर स्थिति में ईश्वरीय इच्छा मानकर खुश रहने की चेष्टा करना चाहिए । क्योंकि इस जीवन की दौड़ में हारते भी हमीं हैं और जीतते भी हमीं हैं । अतः हमेशा खुश रहने की चेष्टा करना चाहिए ।
Thursday, October 29, 2009
ख्वाहिशें

कितनी बेरहम होती है ये ख्वाहिशें, जिन्हें हम पाल कर अपने साथ दर्द का रिश्ता बना लेते हैं । ऎसा क्यों करते हैं ?शायद ही कोई इन्सान ऎसा होगा जिन्हें इन ख्वाहिशों ने सताया न हो । बिना इन ख्वाहिशों के कोई भी जीवन अकल्पनीय है ।ये ख्वाहिशें कितनी निर्लज्ज होती है कि पहले तो यह बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारे मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर जाती हैं फिर चित्त पर अपना आधिपत्य जमाते हुए मस्तिष्क को विवेक शून्य कर देती है तथा अपनी सकारात्मकता के लिए एक तलब पैदा करती है ।ऎसा लगता है कि जिस प्रकार से हमारे शरीर में सॉस का चलना एक तकनीकी व्यवस्था है, जो हमें जीवित रखती हैं ठीक उसी प्रकार हमारे मन-मस्तिष्क में नये इच्छाओं ( ख्वाहिशों) का बनते रहना ही हमें जीवित रहने का बोध कराती है क्योंकि बोध जो हमें ज्ञानेन्द्गियों द्घारा होता है । अतः ये ख्वाहिशों या इच्छा के हमारे जीवन का स्तम्भ हैं क्योंकि बिना इन ख्वाहिशों या इच्छा के हमारे जीवन का कोई क्रिया-कलाप दिनचर्या से लेकर जीवन में किसी बड़े उदेश्य की प्राप्ति तक आगे कुछ भी समभव नहीं हैं ये इच्छाये भी ख्वाहिशों का स्वरूप ही है इनमें सिर्फ इतना ही अन्तर है कि ख्वाहिशें हमारे जीवन के दिशा का निर्माण करती है तथा इच्छा हमारे वर्तमान क्रिया-कलापों को संचालित करती है और जीवन की दिशा में अग्रसर कराती है ।ये ख्वाहिशें हमारे जीवन के संचालन में उतनी ही आवश्यक है जितना किसी आटो मोबाइल गाड़ी में ईधन की आवश्यकता हैं, क्योंकि जिस प्रकार गाड़ी की ईधन टंकी में ईधन भरकर उससे गाड़ी चलाने के लिए ऊर्जा प्राप्त करते हैं ठीक हम अपने मनः मस्तिष्क रूपी टंकी में ईच्छा या ख्वाहिशें रूपी ईधन भरकर उनकी प्राप्ति के लिए अपने आप को अर्जित (Active) करते हैं ।कितनी बड़ी मायावी हैं ये ख्वाहिशें जो अस्तित्वहीन होते हुए भी हमारे अस्तित्व का निर्माण करती है ।इन ख्वाहिशों की माया ठीक उस शंमा की भांति ही हैं जो हम परवानों को अपनी सकारात्मकता की कशिश में जलता रहता है और जिस प्रकार परवानों की गरिमा या परिचायक एक समाँ होती ठीक उसी प्रकार हमारे आस्तित्व की निर्माता ये ख्वाहिशे ही है क्योंकि इन ख्वाहिशों द्घारा सम्पादित क्रिया-कलाप ही हमारे अस्तित्व एवं व्यक्तिव का विकास एवं निर्माण करती है ।
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