Thursday, October 29, 2009

ख्वाहिशें


कितनी बेरहम होती है ये ख्वाहिशें, जिन्हें हम पाल कर अपने साथ दर्द का रिश्ता बना लेते हैं । ऎसा क्यों करते हैं ?शायद ही कोई इन्सान ऎसा होगा जिन्हें इन ख्वाहिशों ने सताया न हो । बिना इन ख्वाहिशों के कोई भी जीवन अकल्पनीय है ।ये ख्वाहिशें कितनी निर्लज्ज होती है कि पहले तो यह बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारे मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर जाती हैं फिर चित्त पर अपना आधिपत्य जमाते हुए मस्तिष्क को विवेक शून्य कर देती है तथा अपनी सकारात्मकता के लिए एक तलब पैदा करती है ।ऎसा लगता है कि जिस प्रकार से हमारे शरीर में सॉस का चलना एक तकनीकी व्यवस्था है, जो हमें जीवित रखती हैं ठीक उसी प्रकार हमारे मन-मस्तिष्क में नये इच्छाओं ( ख्वाहिशों) का बनते रहना ही हमें जीवित रहने का बोध कराती है क्योंकि बोध जो हमें ज्ञानेन्द्गियों द्घारा होता है । अतः ये ख्वाहिशों या इच्छा के हमारे जीवन का स्तम्भ हैं क्योंकि बिना इन ख्वाहिशों या इच्छा के हमारे जीवन का कोई क्रिया-कलाप दिनचर्या से लेकर जीवन में किसी बड़े उदेश्य की प्राप्ति तक आगे कुछ भी समभव नहीं हैं ये इच्छाये भी ख्वाहिशों का स्वरूप ही है इनमें सिर्फ इतना ही अन्तर है कि ख्वाहिशें हमारे जीवन के दिशा का निर्माण करती है तथा इच्छा हमारे वर्तमान क्रिया-कलापों को संचालित करती है और जीवन की दिशा में अग्रसर कराती है ।ये ख्वाहिशें हमारे जीवन के संचालन में उतनी ही आवश्यक है जितना किसी आटो मोबाइल गाड़ी में ईधन की आवश्यकता हैं, क्योंकि जिस प्रकार गाड़ी की ईधन टंकी में ईधन भरकर उससे गाड़ी चलाने के लिए ऊर्जा प्राप्त करते हैं ठीक हम अपने मनः मस्तिष्क रूपी टंकी में ईच्छा या ख्वाहिशें रूपी ईधन भरकर उनकी प्राप्ति के लिए अपने आप को अर्जित (Active) करते हैं ।कितनी बड़ी मायावी हैं ये ख्वाहिशें जो अस्तित्वहीन होते हुए भी हमारे अस्तित्व का निर्माण करती है ।इन ख्वाहिशों की माया ठीक उस शंमा की भांति ही हैं जो हम परवानों को अपनी सकारात्मकता की कशिश में जलता रहता है और जिस प्रकार परवानों की गरिमा या परिचायक एक समाँ होती ठीक उसी प्रकार हमारे आस्तित्व की निर्माता ये ख्वाहिशे ही है क्योंकि इन ख्वाहिशों द्घारा सम्पादित क्रिया-कलाप ही हमारे अस्तित्व एवं व्यक्‍तिव का विकास एवं निर्माण करती है ।

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