Saturday, October 31, 2009

जीवन की दौड़ में ‘मैं’

जिन्दगी की इस भागती दौड़ में सभी अपनी-अपनी निर्धारित पंक्‍ति में दौड़ रहे हैं । इस दौड़ में एक पंक्‍ति में “मैं” भी शामिल हूँ । एक समय ऐसा था कि जिन्दगी की इस दौड़ में मेरी भी हिस्सेदारी थी लेकिन मैं बार-बार पीछे छूट जाता रहा और इस कारण मैं स्वयं की स्थिति का आंकलन करना ही भूल गया था, क्योंकि दिलो-दिमाग में कहीं कुछ ऐसा बैठ गया था कि पंक्‍ति का अगला छोर कहाँ है इसका मैं अनुमान भी नहीं लगा पाता था और हमेशा पंक्‍ति के पिछले छोर पर स्वयं को पाता था । शायद उन दिनों मेरा आत्मविश्‍वास समाप्त हो गया था ; शायद मेरे अंदर से मेरा ‘मैं’ भी खत्म हो चुका था । यह वहीं ‘मैं’ है जो जीवन का अहसास कराता है । जब मनुष्य का आत्मबल पैदा होता है तब उसके अन्दर से यह ‘मैं’ उसके अस्तित्व से परिचित कराता है । और उसे जीवन लीला में शामिल होने का अहसास कराता है । अकस्मात्‌ एक वक्‍त ऐसा आया जिसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि मेरे इस पंक्‍ति में शामिल होने का क्या तात्पर्य है? जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं उसे इस पंक्‍ति में शामिल होने की क्या जरूरत है? इस वक्‍त ने मेरे अन्दर ‘मैं’ को जागृत कर मुझे अपने वजूद से परिचित कराया । उस वक्‍त ने मुझे बताया कि मैं अपनी पंक्‍ति में पीछे रहकर भी अपने स्थान की महत्ता से परिचित नहीं था और मेरे मन में नये-नये ख्याल उत्पन्‍न होने लगे । मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे से भवितव्यता का तात्पर्य यह भी हो सकता है कि मैं अपने से अगले धावक के पिछड़ेपन को ढाँप सकूँ । मैंने पाया कि अगला धावक पिछड़ेपन के कारण जब कभी उत्साहित हो जाता था तब उसके मन का यह ‘भय’ कि वह कहीं मुझसे भी पिछड़ न जाये, उसके अन्दर के आत्मबल को जागृत कर देता था । इससे उसकी गति तेज हो जाती थी । इस प्रकार उसने वह पिछड़ेपन को छोड़कर स्वयं का आत्मबल बनाये रखा था इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने अपने पीछे मुड़कर देखा तो पता लगा कि इस पंक्‍ति का पिछला भी कोई छोर नहीं है । फिर, मैं ही अकेले इस दौड़ में पीछे नहीं था बल्कि मेरे पीछे बहुत सारे लोग दिखायी दे रहे थे ।
इस दौड़ में कभी कोई थककर बैठ जा रहा था, कोई गिर जा रहा था । परन्तु चाहे जो भी हो, जब तक उनके अन्दर का मैं उनकी हिम्मत, ताकत, जोश के रूप में जागृत था वे दौड़ रहे थे । इस दौड़ में दौड़ने वाले सभी इस दौड़ को जीतना चाहते थे जबकि कोई भी इस दौड़ की जीत से परिचित ही नहीं था । जिस दौड़ का आरंभ मैं से शुरू होकर मैं की ही तलाश में खत्म हो जाता है उस दौड़ की जीत क्या हो सकती है? आखिर हम सब कहाँ दौड़े जा रहे हैं क्या इस दौड़ का अन्त भी है? कहीं यह दौड़ जीवन समाप्ति के उपरांत भी चलती तो नहीं रहेगी । यदि ऐसा है तो फिर उसकी स्थिति क्या होगी जिस दौड़ के आरंभ और अन्त का कोई ज्ञान ही नहीं । उसमें हम कहाँ दौड़े चले जा रहे हैं हमें यह भी तो नहीं पता कि हम दौड़ते-दौड़ते कहां पहुंचेंगे । इस दौड़ में हम स्वयं ही दौड़ हैं या हमें दौड़ाने में कही किसी अज्ञात शक्‍ति का हाथ तो नहीं है? अगर ऐसा है तो फिर हम किस लिये दौड़ रहे हैं आखिर अपने सहधावक से आगे निकलने का प्रयास हमें कहां ले जाना चाहता है? सुबह के साथ हर इंसान नयी उमंग के साथ दौड़ना आरंभ करता है और रात होने पर ही विश्राम करता है और एक दिन इस निरन्तर दौड़ के साथ ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है । उसके जीवन के आरंभ होने से जीवन की सामाप्ति तक केवल उसकी शारीरिक बनावट में ही अन्तर होता है । किन्तु जिस शरीर के साथ है उसके शरीर के सिवाय उसके साथ कुछ भी तो नहीं जाता है फिर वह क्यूँ दौड़ रहा है किस लिये दौड़ रहा है जो कोई भी आप है उसे इस दौड़ में शामिल होना है क्योंकि यह जीवन ही दौड़ है ।
ऐसा लगता है कि हम दौड़ तो रहे हैं परन्तु हमें दौड़ाने वाली कोई ऐसी शक्‍ति है जो हमारे जीवन को अपने अनुसार समय-समय पर संचालित करती है; वही इस दौड़ में पंक्‍ति, स्थिति, व हमारी सोच आदि का निर्धारण करती है । सभी इस दौड़ में सफल होना चाहते हैं लेकिन इस दौड़ की सफलता क्या है यह किसी को भी पता नहीं है या फिर भ्रम वश झूठी सफलता के लिये दौड़ते चले जा रहे हैं । अचानक इस दौड़ में ही एक ऐसा मोड़ आया कि उसमें मुझे एक पुराना सहधावक मिला । एक समय था कि वह काफी तेज तथा काफी साहसी धावक था लोगों को उस पर बड़ा नाज था, जिसकी सफलता को देखकर लोग काफी सफल भविष्य की आकांक्षा किया करते थे, परन्तु अब वह सहधावक वो नहीं रह गया था । क्या हो गया था उसे? उसका वह पुराना हौसला कहाँ चला गया था? उसकी वर्तमान दशा को देखकर मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ । मुझे यह विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि यह वही पुराना धावक है जिसकी स्थिति आज ऐसी दिखाई दे रही है । कुछ और आगे बढ़ने पर एक सफल धावक की सफलता की चर्चा सुनने को मिली । वह धावक, अपनी ही पंक्‍ति का था शायद हमारी पंक्‍ति में ही हमसे बहुत पीछे था पर न जाने कब यूं वह आगे निकला कि वह सफलता की बुलन्दियों को प्राप्त कर गया । मेरे मन में एक सवाल उठा कि जिसकी कल्पना हमने कभी की ही नहीं फिर वह इस सफलता को कैसे प्राप्त कर लिया और अचानक कहां पहुंच गया । यह उसी धावक की क्षमता कही जायेगी या भवितव्यता ? अन्तर्मन से बार-बार पूछने पर ऐसा लगा कि यदि यह उस धावक की क्षमता थी तो मेरा पिछलाधावक इससे कहीं योग्य था और यदि भवितव्यता थी तो इस भवितव्यता का निर्धारण कैसे होता है? इन सब सवालों का जवाब जानने के लिये मेरा मन काफी उत्सुक होने लगा । मैं जानना चाहता था कि इस जीवन की दौड़ क्या है? इसका आरंभ और इसका अन्त क्या है? मेरी यह जिज्ञासा न जाने कब दैवज्ञता में परिवर्तित हो गई कि इसे जानने की उत्सुकता मे ‘मैं’ न जाने कब लोगों के भाग्यों की विवेचना करने लगा इसका हमें पता भी न लगा । और फिर जिन्दगी के इस दौड़ में दैवज्ञ बनकर दौड़ना बड़ा अजीब लगने लगा । ऐसा लगता था कि मैं दौड़ तो रहा हूँ लेकिन इस दौड़ से मेरी स्थिति में, मेरे वजूद में, मेरी अपनी भागीदारी नजर नहीं आ रही थी परन्तु इस जीवन लीला में शामिल होने के कारण मेरे अन्दर भी नयी-नयी आकांक्षायें सपने मेरे अन्दर भी जन्म लेते हैं ।
बड़ी ही अजीब स्थिति होती है इन दैवज्ञों की । कभी तो यह सभी की तरह खुद की वास्तविकता को भूलकर सपने, आकांक्षायें और न जाने क्या-क्या अपने अंतर्मन में सजा लेते हैं और कभी मैं को प्राप्त कर लेने पर या मैं की वास्तविकता से परिचित होने पर अचानक इनके होश उड़ जाते हैं मानो पैरों तले जमीन ही खिसक गयी हो । ये दूसरों को तो बखूबी समझ लेते हैं पर अपनी हर खराब परिस्थिति या दुखद स्थिति में अपने से यह कहना कि यह तो मेरी भवितव्यता है या अपने को समझा पाना कितना कठिन होता है । क्योंकि हम अपने साथ अपने मैं के वजूद को नहीं छोड़ पाते हैं और यही मैं भरी आसक्‍ति ही मुझे दुख और सुख भरी परिस्थितियों से जोड़ती है । इस प्रकार हम यहाँ यह भी कहेंगे कि जब हम किसी विषम परिस्थिति के साथ संघर्ष कर रहे होते हैं तो वहाँ खुद के वजूद से संघर्ष कर रहे होते हैं क्योंकि मैं है तो मेरी सुख-दुख भरी परिस्थितियां हैं । और मैं नहीं तो फिर ईश्‍वर द्वारा रचित मेरी भवितव्यता है तब जो भी है उसी का है । यह शाश्‍वत सत्य है, इसलिए हार-जीत, सुख-दुख आदि हर स्थिति में ईश्‍वरीय इच्छा मानकर खुश रहने की चेष्टा करना चाहिए । क्योंकि इस जीवन की दौड़ में हारते भी हमीं हैं और जीतते भी हमीं हैं । अतः हमेशा खुश रहने की चेष्टा करना चाहिए ।

9 comments:

  1. जिन्दगी की इस भागती दौड़ में सभी अपनी-अपनी निर्धारित पंक्‍ति में दौड़ रहे हैं । इस दौड़ में एक पंक्‍ति में “मैं” भी शामिल हूँ । आज ये पन्क्तियां www.arunsrawat.blogspot.com पर भी पढने को मिली । अच्छा लेख । बधाई ।

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  2. ब्लॉग परिवार में स्वागत है!लिखते और पढ़ते रहिये...!अपने विचार रखिये..

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  3. badhiya alekhan ke liye badhae.

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  4. क्या बात है, ' सर्व खल्विदं ब्रह्म ' यह "मैं " अर्वात्र व्याप्त ब्रह्म है , मुझमें तुझमें ,कण -कण में वही ब्रह्म है फिर क्या मैं क्या पराया , हम ही हारते हैं हम ही जीतते हैं |----अति सुन्दर , सत्य , शिव --बात | बधाई |

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  5. safalate ke sahee maandand par chalane ki aavashyakataa hai.

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  6. हिंदी ब्लॉग लेखन के लिए स्वागत और शुभकामनायें
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें तथा अपने सुन्दर
    विचारों से उत्साहवर्धन करें

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  7. “Strength does not come from winning. Your struggles develop your strengths. When you go through hardships and decide not to surrender, that is strength.”

    very fine and ultimate presentation.

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