२५ वर्ष पूर्ण करने के बाद बी० एस० पी० ने अपने मजबूत अस्तित्व का आगाज पूरे देश में कर दिया है । पिछले ३ वर्षों में बी० एस० पी० के नए रूप ने अपना जलवा व अपनी सफलता का अप्रत्याशित जौहर बिखेरा ही है । साथ ही १५ मार्च २०१० को हुए इस महा रैली में मायावती सुप्रीमो ने अपने अड़ियल व हठी स्वभाव को एक बार फिर साबित कर दिया । यह स्वभाव ही इनके ख्याति व मजबूती का आधार है । मायावती अब तक के जीवन में ऐसे कई कारनामे करती आयी हैं जिसमें विपक्षियों को विरोध करने का मौका मिलता है और उस विरोध से मायावती की ख्याति खुद ब खुद बढ़ती रहती है । जैसे कभी नए नए जिले बनाये, तो कभी मूर्त्तियाँ और पार्क बनाये और इसी कड़ी में इस रैली में नोटों की माला दो बार पहन कर अपने हठी स्वभाव का परिचय दिया । इसे मायवती का हठी स्वभाव कहें या चर्चा व सुर्खियों में आने का हथकंडा कहें । क्योंकि मायावती यह जानती हैं कि विपक्षी जितने भी आरोप लगाएंगे उनकी प्रसिद्धि उतनी बढ़ेगी और उनका दलित वोट बैंक पर विपक्षियों द्वारा विरोध या आरोप पर कोई असर नहीं पड़ता है अपितु और मजबूत होता है । साथ ही सवर्णों को जोड़ने से काफी हद तक सवर्ण वोट बैंक भी बढ़े हैं । आई० बी० एन० ७ के मैनेजिंग एडीटर आशुतोष कहते हैं कि काशीराम हमेशा अस्थिर व मजबूत सफर के पक्षधर थे जिससे ज्यादा प्यारा दलितों को मोबिलाइज करने का मौका मिलेगा । बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के बाद पहली बार किसी शख्स ने उत्तर भारत में दलित तबके में यह उम्मीद जगाई थी ।
अंबेडकर दार्शनिक थे, कांशीराम खाटी राजनीतिज्ञ । अंबेडकर ने सोयी दलित चेतना को जगाने का काम किया लेकिन वो कभी भी कांग्रेस सिस्टम को तोड़ नहीं पाये और इसलिये जब उन्होंने राजनीतिक दल बनाया तो नाकामयाब हो गये, लेकिन कांशीराम ने अंबेडकर की बनायी जमीन को उर्वर किया, जागी दलित चेतना को यह भरोसा दिया कि वो अपना दल बनाकर उच्च जातियों को टक्कर दे सकते हैं । इसके लिए जरूरी था कि कांशीराम उच्च जातियों से टकराव मोल लें और उनके झुकने को विजिबल सिंबल में तब्दील करें । दलित तबका इस असंभव को संभव होते देखे और ये तब तक संभव नहीं होता जब तक कि वो मिलिटेंट आवाज में बात न करें और अपनी मजबूती और उच्च जातियों की मजबूरी का अहसास न करायें ।
लोग कहते हैं कि आज कांशीराम होते तो वो मायावती के काम से असहमत होते । मैं कहता हूं कि वो होते तो मायावती को शाबासी देते । लोग भूल जाते हैं कि मायावती की आक्रामकता ने ही कांशीराम को आकर्षित किया था, उन्हें दलित चेतना में आग लगाने के लिये दब्बू किस्म के लोगों की जरूरत नहीं थी । मायावती को कांशीराम ने प्रशिक्षित किया है और अपने जीते जी उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया था । आज लोग भले ही मायावती के मूर्तियां और म्यूजियम बनाने पर नाक-भौं सिकोड़ें, इसे पैसा कमाने का तरीका मानें लेकिन बारीकी से देखें तो पता चलेगा यह दलित उभार के प्रतीक हैं और उच्च जातियां इन पर जितना बवाल खड़ा करेंगी बीएसपी उतनी ही मजबूती होगी । इनके बीच मायावती को सिर्फ दलितों को कांशीराम की भाषा में यह संदेश भर देना होगा कि क्या हमें हजारों साल के बाद अपने नेताओं की मूर्तियां बनाने का भी हक नहीं ?
क्या हमें नोटों की माला पहनने का भी अधिकार नहीं है । यह इस सवाल का जवाब है कि मायावती तमाम हो-हल्ले के बीच दोबारा सार्वजनिक मंच से नोटों की माला पहनती हैं और यकीन मानिये कांशीराम इस पर खुश होते नाराज नहीं क्योंकि वो होते तो वो भी यही करते ।
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